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परमात्मप्रकाश
भावार्थ - हे जीव, तू पुत्रादि कुटुम्बके लिये हिंसा, झूठ, चोरी, कुशीन परिग्रहादि अनेक प्रकारके पाप करता है, तथा अन्तरङ्ग में रागादि विकल्प रहित ज्ञानादि शुद्धचैतन्य प्राणोंका घात करता है, अपने प्राण रागादिक मैलसे मैले करता है, और वाह्यमें अनेक जीवोंकी हिंसा करके अशुभ कर्मोंका उपार्जन करता है, उनका फल तू नरकादि गतिमें अकेला सहेगा | कुटुम्बके लोग कोई भी तेरे दुःखके बटानेवाले नहीं हैं, तू ही सहेगा । श्रीजिनशासन में हिंसा दो तरहकी है । एक आत्मघात, दूसरी परघात | उनमेंसे जो मिथ्यात्व रागादिकके निमित्तसे देखे सुने भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप जो तीक्ष्ण शस्त्र उससे अपने ज्ञानादि प्राणोंका हनना, वह निश्चयहिंसा है, रागादिककी उत्पत्ति वह निश्चय हिंसा है । क्योंकि इन विभावोंसे निज भाव घाते जाते हैं । ऐसा जानकर रागादि परिणामरूप निश्चयहिंसा त्यागना । यही निश्चय हिंसा आत्मघात है । और प्रमादके योगसे अविवेकी होकर एकेन्द्री, दोइन्द्री, इन्द्री, चौइन्द्री, पंचेन्द्री जीवोंका घात करना वह परघात है । जब इसने परजीवका धान विचारा, तव इसके परिणाम मलिन हुए, और भावोंकी मलिनता ही निश्चयहिंसा है, इसलिये परघातरूप हिंसा आत्मघातका कारण है ।
जो हिंसक जीव है, वह परजीवोंका घातकर अपना घात करता है । यह स्वदया परदयाका स्वरूप जानकर हिंसा सर्वथा त्यागना । हिंसा के समान अन्य पाप नहीं है | निश्चयहिंसाका स्वरूप सिद्धान्त में दूसरी जगह ऐसा कहा है- जो रागादिक का अभाव वही शास्त्र में अहिंसा कही है, और रागादिककी उत्पत्ति वही हिंसा है, ऐसा कथन जिनशासन में जिनेश्वरदेवने दिखलाया है । अर्थात् जो रागादिकका अभाव वह स्वदया और जो प्रमादरहित विवेकरूप करुणाभाव वह परदया है । यह स्वदया परदया धर्मका मूलकारण है | जो पापी हिंसक होगा उसके परिणाम निर्मल नहीं हो सकते, ऐसा निश्चय है, परजीव घात तो उसकी आयुके अनुसार है, परन्तु इसने जब परघात विचारा, तव आत्मघाती हो चुका ॥ १२५॥
अथ तमेव हिंसादोपं द्रढयति
मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुं दुक्खु करोसि |
तं तह पासि प्रांत-गुण वसई' जीव लहीसि ॥ १२६ ॥ मारयित्वा चूर्णयित्वा जीवान् यत् त्वं दुःखं करिष्यसि । तत्तदपेक्षया अनन्वगुणं अवश्यमेव जीव लभसे ।। १२६||