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परमात्मप्रकाश
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मुक्खु ण पावहि जीव तुहूं घरु परियणु चिंतंतु । तो वरि चिंतहि तउ जि तउ पावहि मोक्खु महंतु ॥१२४॥ मोक्षं न प्राप्नोषि जीव त्वं गृहं परिजनं चिन्तयन् । ततः वरं चिन्तय तपः एव तपः प्राप्नोषि मोक्षं महान्तम् ॥१२४।।
आगे घर परिवारादिककी चिन्तासे मोक्ष नहीं मिलती, ऐसा निश्चय करते हैं--(जीव) हे जीव, (त्वं) तू (गृहं परिजनं) घर परिवार वगैरहकी (चिन्तयन्) चिन्ता करता हआ (मोक्ष) मोक्ष (न प्राप्नोति) कभी नहीं पा सकता, (ततः) इसलिये (वरं) उत्तम (तपः एव तपः) तपका ही बारम्बार (चितय) चिन्तवन कर क्योंकि तपसे ही (महांतं मोक्षं) श्रेष्ठ मोक्ष सुखको (प्राप्नोषि) पा सकेगा।
भावार्थ-तू गृहादि परवस्तुओंको चिन्तवन करता हुआ कर्म-कलङ्क रहित केवलज्ञानादि अनन्तगुण सहित मोक्षको नहीं पावेगा, और मोक्षका मार्ग जो निश्चयव्यवहार-रत्नत्रय उसको भी नहीं पावेगा। इन गृहादिके चिन्तवनसे भव-वन में भ्रमण करेगा। इसलिये इनका चिन्तवन तो मत कर, लेकिन बारह प्रकारके तपका चितवन कर। इसीसे मोक्ष पायेगा। वह मोक्ष तीर्थङ्कर परमदेवाधिदेव महापुरुषोंसे आश्रित है, इसलिये सबसे उत्कृष्ट है । मोक्षके समान अन्य पदार्थ नहीं। यहां परद्रव्यकी इच्छाको रोककर वीतराग परम आनन्दरूप जो परमात्मस्वरूप उसके ध्यान में ठहरकर घर परिवारादिकका ममत्व छोड़, एक केवल निजस्वरूपकी भावना करना यह तात्पर्य है । आत्म-भावनाके सिवाय अन्य कुछ भी करने योग्य नहीं है ।।१२४।।
अथ जीवहिंसादोपं दर्शयति
मारिवि जीवह लक्खडा जं जिय पाउ करीसि । पुत्त-कलत्तहं कारणइतं तुहुँ एक्कु सहीसि ।।१२५।। मारयित्वा जीवानां लक्षाणि यत् जीव पापं करिष्यसि ।
पुत्रकलत्राणां कारणेन तत् त्वं एकः सहिष्यसे ।।१२।।
आगे जोवहिंसाका दोष दिखलाते हैं- (जीवानां लक्षाणि) लाखों जीवोंको (मारयित्वा) मारकर (जीव) हे जीव, (यत्) जो तू (पापं करिष्यसि) पाप करता है, (पुत्रकलत्राणां) पुत्र स्त्री वगैरहके (कारणेन) कारण (तत् त्वं) उसके फलको तू (एक) अकेला (सहिष्यसे) सहेगा।