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परमात्मप्रकाश भावार्थ-यह जीव चौरासीलाख योनियोंमें अनेक तरहके ताप सहता हमा भटक रहा है, निज परमात्मतत्त्वके ध्यानसे उत्पन्न वीतराग परम आनन्दरूप निर्याकुल अतीन्द्रिय सुखसे विमुख जो शरीरके तथा मनके नाना तरहके सुख दुःखों को सहता हुआ भ्रमण करता है । निज परमात्माकी भावनाके शत्रु जो देहसम्बन्धी माता, पिता, भ्राता, मित्र, पुत्र-कलत्रादि उनसे मोहित है, तबतक अज्ञानी है, वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानसे रहित है, वह ज्ञान मोक्षका साधन है, ज्ञान ही से मोक्षको सिद्धि होती है । इसलिये हमेशा ज्ञानकी ही भावना करनी चाहिये ।।१२२।।
अथ हे जीव गृहपरिजनशरीरादिममत्वं मा कुर्विति संवोधयतिजीव म जाणहि अप्पणउं घरु परियणु तणु इठ्ठ । कम्यायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहि दिठु ॥१२३॥ जीव मा जानीहि आत्मीयं गृहं परिजनं तनुः इष्टम् । कर्मायत्त कृत्रिमं आगमे योगिभिः दृष्टम् ।।१२३।।
आगे हे जीव, तू घर परिवार और शरीरादिका ममत्व मत कर ऐसा सम. झाते हैं-(जीव) हे जीव, तू (गृह) घर (परिजनं) परिवार (तनुः) शरीर (इष्टं) और मित्रादिकों (आत्मीयं) अपने (मा जानीहि) अपने मत जान, क्योंकि (आगमे) परमागममें (योगिभिः) योगियोंने (दष्टं) ऐसा दिखलाया है, कि ये (कर्मायत) कर्मोके आधीन हैं, और (कृत्रिमं) विनाशीक है ।
भावार्थ-ये घर वगैरह शुद्ध चेतनस्वभाव अमूर्तीक निज आत्मासे भिन्न जो शुभाशुभ कर्म उसके उदयसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये कर्माधीन हैं, और विनम्बर होने से शुद्धात्मद्रव्यसे विपरीत हैं। शुद्धात्मद्रव्य किसीका बनाया हुआ नहीं है, इसलिये अकृत्रिम है, अनादिसिद्ध है, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव है। जो टांकीसे गढ़ा हुआ न हो विना ही गढ़ी पुरुपाकार अमूर्तीकमूर्ति है । ऐसे आत्मस्वरूपसे ये देहादिक मिन हैं, ऐसा सर्वनकथित परमागममें परमज्ञानके धारी योगीश्वरोंने देखा है। यहांवर पुत्र, मित्र, स्वी, शरीर आदि सबको अनित्य जानकर नित्यानन्दरूप निज शुद्धाग न. भावमें ठहरकर गृहादिक परद्रव्यमें ममता नहीं करना ।।१२३।।
अथ गृहपरिवारादिचिन्तया मोसो न लभ्यत इति निश्चिनोति