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परमात्मप्रकाश
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करता है ? मत कर । यहाँ पर ऐसा व्याख्यान जानकर कर्मोके आस्रवसे रहित तथा रागादि विकल्प-जालोंसे रहित जो निज शुद्धात्माकी भावना वही करनी चाहिए, ऐसा तात्पर्य जानना ॥१२०॥
अथ वहिर्व्यासंगासक्तं जगत् क्षणमप्यात्मानं न चिन्तयतीति प्रतिपादयतिधंधइ पडियउ सयलु जगु कम्मई करइ अयाणु । मोक्खहं कारणु एक्कु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु ॥१२१।। धान्धे (?) पतितं सकलं जगत् कर्माणि करोति अज्ञानि । मोक्षस्य कारणं एक क्षणं नव चिन्तयति आत्मानम् ।।१२१।।
आगे बाहरके परिग्रह में लीन हए जगतके प्राणी क्षणमात्र भी आत्माका चितवन नहीं करते, ऐसा कहते हैं-(धांधे पतितं) जगत्के धन्धे में पड़ा हुआ ( सकलं जगत् ) सब जगत् (प्रज्ञानि) अज्ञानी हुआ (कर्माणि) ज्ञानावरणादि आठों कर्मोको (करोति) करता है, परन्तु (मोक्षस्य कारणं) मोक्षके कारण (आत्मानं) शुद्ध आत्माको (एक क्षणं) एक क्षण भी (नैव चितयति) नहीं चिन्तवन करता ।
___ भावार्थ-भेदविज्ञानसे रहित ये मूढ प्राणी शुद्धात्माकी भावनासे पराङ मुख हैं, इसलिए शुभाशुभ कर्मोका ही बन्ध करता है, और अनन्तज्ञानादिस्वरूप मोक्षका कारण जो वोतराग परमानन्दरूप निजशुद्धात्मा उसका एकक्षण भी विचार नहीं । करता। सदा ही आर्त रौद्र ध्यान में लग रहा है ऐसा सारांश है ।।१२१।।
अथ तमेवार्थ द्रढयति
जोणि-लक्खई परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु । पुत्त-कत्तलहिं मोहियउ जाव ण णाणु महंतु ॥१२२॥ योनिलक्षाणि परिभ्रमति आत्मा दुःखं सहमानः ।। पुत्रकलत्रैः मोहितः यावन्न ज्ञानं महत् ।।१२२।।
आगे उसी बातको दृढ़ करते हैं-(यावत्) जबतक (महत् ज्ञानं न) सबसे श्रेष्ठ ज्ञान नहीं हैं, तबतक (आत्मा) यह जीव (पुत्रकलत्रैः मोहितः) पुत्र स्त्री आदिकोंसे मोहित हुआ (दुःखंसहमानः) अनेक दुःखोंको सहता हुआ (योनि लक्षारिण) . चौरासी लाख योनियोंमें (परिभ्रमति) भटकता फिरता है।