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________________ २१६ ] आगे हे जीव, तू भी श्रीजिनराजकी तरह आठ कर्मोंका नाशकर मोक्षको जा, ऐसा समझाते हैं - (जीव) हे जीव, ( त्वं ) तू ( संसारे) संसार - वन में (भ्रमन्) भटकता हुआ (महद् दुःखं) महान् दुःख ( प्राप्नोषि ) पावेगा, इसलिए (अष्टापि कर्माणि ) ज्ञानावरणादि आठों ही कर्मोंको (निर्दल्य) नाश कर, ( महांतं मोक्षं) सबमें श्रेष्ठ मोक्षको (व्रज) जा । भावार्थ — निश्चय कर संसारसे रहित जो शुद्धात्मा उससे जुदा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव भावरूप पांच तरहके परावर्तनस्वरूप संसार उसमें भटकता हुआ चारों गतियोंके दुःख पावेगा, निगोद राशिमें अनन्तकाल तक रुलेगा । इसलिए आठ कर्मों का क्षय करके शुद्धात्माकी प्राप्तिके बलसे रागादिकका नाश कर निर्वाणको जा । कैसा है वह निर्वाण, जो निजस्वरूपकी प्राप्ति वही जिसका स्वरूप है, और जो सबमें श्रेष्ठ है । केवलज्ञानादि महान् गुणोंकर सहित है । जिसके समान दूसरा कोई नहीं ||११|| परमात्मप्रकाश अथ यद्यप्यल्पमपि दुःखं सोढुमसमर्थस्तथापि कर्माणि किमिति करोपीति शिक्षां प्रयच्छति -- जिय अणु मित्तु विदुक्खडा सहण ण सक्कहि जोइ । चउ - गइ दुक्खहं कारणइ कम्मइ कुणहि किं तोइ ॥ १२० ॥ जीव अणुमात्राण्यपि दुःखानि सोढुं न शक्नोषि पश्य । चतुर्गतिदुःखानां कारणानि कर्माणि करोषि किं तथापि ।। १२० ।। आगे जो थोड़े दुःख भी सहने को असमर्थ है, तो ऐसे काम क्यों करता है, कि जन्मोंसे अनन्तकाल तक दुःख तू भोगे, ऐसी शिक्षा देते हैं- (जीव) हे गृह जीव, तू ( श्रणुमात्राण्यपि ) परमाणुमात्र ( थोड़े ) भी ( दुःखानि ) दुःख (सोढुं ) सहने को ( न शक्नोषि ) नहीं समर्थ है, (पश्य) देख ( तथापि ) तो फिर (चतुर्गतिदुःखानां) चार गतियोंके दुःखके ( कारणानि कर्माणि ) कारण जो कर्म हैं, (किं करोषि ) उनकी क्यों करता है । भावार्थ - परमात्माको भावनासे उत्पन्न तत्त्वरूप वीतराग नित्यानन्द परम स्वभाव उससे भिन्न जो नरकादिककै दुःख उनके कारण कर्म ही हैं। जो दुःख तुके बच्छे नहीं लगते, दुःखोंको अनिष्ट जानता है, तो दुःखके कारण कर्मको क्यों उपार्जन
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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