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परमात्मप्रकाश
किंबहुना विस्तरेण -
मोक्खु जि साहिउ जिणवरहिं छंडिवि बहु-विहु रज्जु । भिक्ख भरोडा जीव तुहुँ करहि ण अप्पर कज्जु ॥ ११८ ॥ मोक्षः एव साधितः जिनवरैः त्यक्त्वा बहुविधं राज्यम् । भिक्षाभोजन जीव त्वं करोषि न आत्मीयं कार्यम् ।। ११८ ||
आगे मोक्षका कारण वैराग्यको दृढ़ करते हैं - ( जिनवरैः ) जिनेश्वरदेवने ( बहुविधं ) अनेक प्रकारका ( राज्यं ) राज्यका विभव ( त्यक्त्वा) छोड़कर (मोक्ष एव) मोक्षको ही ( साधितः) साधन किया, परन्तु (जीव) हे जीव, ( भिक्षाभोजन ) भिक्षासे भोजन करनेवाला ( त्वं ) तू ( श्रात्मीयं कार्य ) अपने आत्माका कल्याण भी ( न करोषि ) नहीं करता ।
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भावार्थ – समस्त कर्ममल - कलंकसे रहित जो आत्मा उसके स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों का स्थान तथा संसार - अवस्था से अन्य अवस्थाका होना, वह मोक्ष कहा जाता है, उसी मोक्षको वीतरागदेवने राज्यविभूति छोड़कर सिद्ध किया । राज्यके सात अंग हैं, राजा, मन्त्री, सेना, वगैरः । ये जहां पूर्ण हों, वह उत्कृष्ट राज्य कहलाता है, वह राज्य तीर्थङ्करदेवका है, उसको छोड़ने में वे तीर्थंकर देरी नहीं करते । लेकिन तू निर्धन होकर आत्म-कल्याण नहीं करता । तू माया-जालको छोड़कर महान् पुरुषोंकी तरह आत्म - कार्य कर । उन महान् पुरुषोंने भेदाभेदरत्नत्रय की भावनाके बलसे निजस्वरूपको जानकर विनाशीक राज्य छोड़ा, अविनाशी राज्यके लिये उद्यमी हुए। यहांपर ऐसा व्याख्यान समझकर बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग करना, तथा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर दुर्धर तप करना यह सारांश हुआ ।। ११८ ।।
अथ हे जीव त्वमपि जिनभट्टारकवदष्टकर्मनिर्मूलनं कृत्वा मोक्षं गच्छेति सम्बोधयति
पावहि दुक्खु महंतु तुहुँ जिय संसारि भमंतु । अट्ठत्रि कम्मइ गिद्द लिवि वच्चहि मुक्खु महंतु ॥ ११६॥
प्राप्नोपि दुःखं महत् त्वं जीव संसारे भ्रमन् ।
अष्टापि कर्माणि निर्दल्य ब्रज मोक्षं महान्तम् ||११||