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परमात्मप्रकाश
अथ स्नेहदोपं दृष्टान्तेन द्रढयति
जलसिंचणु पय-णिद्दलणु पुणु पुणु पीलण-दुक्खु । णेहह लग्गिवि तिल-णियरु जंति सहंतउ पिक्खु ॥११६॥ जलसिञ्चनं पादनिर्दलनं पुनः पुनः पीडनदुःखम् ।
स्नेहं लगित्वा तिलनिकरं यन्त्रेण सहमानं पश्य ॥११६॥
आगे स्नेहका दोष दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं-(तिलनिकर) जैसे तिलों का समूह (स्नेहं लगित्वा) स्नेह (चिकनाई) के सम्बन्धसे (जलसिंचनं) जलसे भीगना, (पादनिर्दलनं) पैरोंसे खुदना, (यंत्रेण) घानीमें (पुनः पुनः) वार बार (पीडनदुःखं) पिलनेका दुःख (सहमानं) सहता है, उसे (पश्य) देखो।
भावार्थ-जैसे स्नेह (चिकनाई तेल) के सम्बन्ध होनेसे तिल घानी में पेरे जाते हैं, उसी तरह जो पंचेन्द्रियके विषयोंमें आसक्त हैं-मोहित हैं वे नाशको प्राप्त होते हैं, इसमें कुछ सन्देह नहीं है ।।११६।।
ते चिय धण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियंतु जिय लोए । वोद्दह-दहम्मि पडिया तरंति जे चेव लीलाए ॥११७।। ते चैव धन्याः ते चैव सत्पुरुषाः ते जीवन्तु जीवलोके ।
यौवनद्रहे पतिताः तरन्ति ये चैव लीलया ।।११७।।
इस विषयमें कहा भी है-( ते चैव धन्याः ) वे ही धन्य हैं, (ते चैव सत्पुरुषाः) वे ही सज्जन हैं, और (ते ) वे ही जीव ( जीवलोके ) इस जीवलाकम (जीवंतु) जीवते हैं, (ये चैव) जो (यौवनव्हे) जवान अवस्थारूपी बड़े भारी तालाव में (पतिताः) पड़े हुए विषय-रसमें नहीं डूबते, (लोलया) लीला (खेल) मात्रमें ही (तरंति) तैर जाते हैं । वे ही प्रशंसा योग्य हैं ।
भावार्थ- यहां विषय-बांद्यारूप जो स्नेह-जल उसके प्रवेणसे रहित जो गम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूपी रत्नोंसे भरा निज शुद्धात्मभावनाम्पी जहाज उससे यौवन अवस्याम्पी महान् तालाबको तैर जाते हैं, वे ही मत्पुरुप हैं, वे ही धन्य है. यह सारांश जानना, बहुत विस्तारसे क्या लाभ है ||११७॥