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परमात्मप्रकाश जीवं घ्नतां नरकगतिः अभयप्रदानेन स्वर्गः ।
द्वौ पन्थानौ समीपो दर्शितौ यत्र रोचते तत्र लग ।।१२७।।
आगे जीवहिंसाका फल नरकगति है, और रक्षा करनेसे स्वर्ग होता है, ऐसा निश्चय करते हैं- (जीवं घ्नतां) जीवोंको मारनेवालोंको (नरकगतिः) नरकगति होती है, (अभयप्रदानेन) अभयदान देनेसे (स्वर्गः) स्वर्ग होता है, (द्वौ पन्थानी) ये दोनों मार्ग (समीपे) अपने पास (दर्शितौ) दिखलाये हैं, (यत्र) जिसमें (रोचते) तेरी रुचि हो, (तत्र) उसीमें (लग) तू लग जा ।
भावार्थ-निश्चयकर मिथ्यात्व विषय कषाय परिणामरूप निजघात और व्यवहारनयकर परजीवोंके इन्द्रा, बल, आयु, श्वासोच्छवासरूप प्राणोंका विनाश उस. रूप परप्राणघात सो प्राणघातियोंके नरकगति होती है। हिंसक जीव नरक ही के पान हैं । निश्चयनयकर वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन परिणामरूप जो निजभावोंका अभय. दान निज जीतकी रक्षा और व्यवहारनयकर परप्राणियोंके प्राणोंकी रक्षारूप अभयदान यह स्वदया परदयास्वरूप अभयदान है, उसके करनेवालोंके स्वर्ग मोक्ष होता है, इसमें सन्देह नहीं है। इनमेंसे जो अच्छा मालूम पड़े उसे करो। ऐसी श्रीगुरुने आज्ञा की। ऐसा कथन सुनकर कोई अज्ञानी जीव तर्क करता है, कि जो ये प्राण जीवसे जुदे हैं, कि नहीं ? यदि जीवसे जुदे नहीं हैं, तो जैसे जीवका नाश नहीं है, वैसे प्राणोंका भी नाश नहीं हो सकता ? अगर जुदे हैं, अर्थात् जीवसे सर्वथा भिन्न हैं, तो इन प्राणों का नाश नहीं हो सकता। इसप्रकारसे जीव हिंसा है ही नहीं, तुम जीवहिंसामें पाप क्यों मानते हो ?
इसका समाधान-जो ये इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास और प्राप्त जीवसे किसी नयकर अभिन्न हैं, भिन्न नहीं हैं, किसी नयसे भिन्न हैं। ये दोनों नय प्रामाणिक हैं । अव अभेद कहते हैं, सो सुनो। अपने प्राणों के होने पर जो व्यबहारनयकर दुःखकी उत्पत्ति वह हिंसा है, उसीसे पापका बन्ध होता है। और जो इस प्राणोंको सर्वथा जुदे ही मानें, देह और आत्माका सर्वथा भेद ही जानें, तो जैसे पर शरीरका घात होनेपर दुःख नहीं होता है, वैसे अपने देहके घातमें भी दुःस न होना चाहिये, इसलिये व्यवहारनयकर जीवका और देशका एकत्व दीन्यता है, परन्तु निया एकता नहीं है । यदि निश्चय पापना होवे, तो देश के विनाश होनेगे जीवका बिनान