________________
परमात्मप्रकाश
- [२०७ उनके साथ (संगं) संग (मा कुरु) मत कर । क्योंकि उनके साथ संग करनेसे (चितासागरे) चितारूपी समुद्र में (पतसि) पड़ेगा, (परं) केवल (अन्यदपि) और भी (अंगः) शरीर (दह्यते) दाहको प्राप्त होगा, अर्थात् अन्दरसे जलता रहेगा।
भावार्थ-जो कोई जीवित, मरण, लाभ, अलाभादिमें तुल्यभाव उसके सम्मुख जो निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्म द्रव्य उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निजभाव उसरूप समभावसे जो जुदे पदार्थ हैं, उनका संग छोड़ दे। क्योंकि उनके संगसे चितारूपी समुद्र में गिर पड़ेगा। जो समुद्र राग द्वेषरूपी कल्लोलोंसे व्याकुल है। उनके संगसे मनमें चिन्ता उत्पन्न होगी, और शरीरमें दाह होगा। यहां तात्पर्य यह है, कि वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिकी भावनासे विपरीत जो रागादि अशुद्ध परिणाम वे ही परद्रव्य कहे जाते हैं, और व्यवहारनयकर मिथ्यात्वी रागी-द्वेषो पुरुष पर कहे गए हैं। इन सबकी सगति सर्वदा दुःख देनेवाली है, किसी प्रकार सुखदायी नहीं है, ऐसा निश्चय है ।।१०।।
अथैतदेव परसंसर्गदूपणं दृष्टान्तेन समर्थयति
भल्लाहं वि णासंति गुण जहं संसग्ग खलेहिं । वइसाणरु लोहहं मिलिउ ते पिट्टियइ घणेहिं ॥११०॥ भद्राणामपि नश्यन्ति गुणाः येषां संसर्ग खलैः । वैश्वानरो लोहेन मिलितः तेन पिट्टयते धनैः ॥११०॥
आगे पर द्रव्यका प्रसंग महान् दुःखरूप है, यह कथन दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं-(खलैः सह) दुष्टोंके साथ (येषां) जिनका (संसर्गः) सम्बन्ध है, वह (भद्राणां अपि) उन विवेकी जीवोंके भी (गुणाः) सत्य शीलादि गुण (नश्यन्ति) नष्ट हो जाते हैं, जैसे (वैश्वानरः) आग (लोहेन) लोहेसे (मिलितः) मिल जाती है, (तेन) तभी (घनः) घनोंसे (पिट्टयते) पोटी-कूटी जाती है ।
भावार्थ-विवेकी जीवोंके शीलादि गुण मिथ्यादृष्टि रागी द्वषी अविवेकी जीवोंकी सङ्गतिसे नाश हो जाते हैं। अथवा आत्माके निजगुण मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध भावोंके सम्बन्धसे मलिन हो जाते हैं। जैसे अग्नि लोहेके सड़में पीटी-कटो जाती है । यद्यपि आगको घन कूट नहीं सकता, परन्तु लोहेको सङ्गतिसे अग्नि भी कूटने में आती है, उसी तरह दोषोंके संगसे गुण भी मलिन हो जाते हैं। यह कथन