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जानकर आकुलता रहित सुखके घातक जो देखे सुने अनुभव किये भोगोंको वांछारूप निदानबन्ध आदि खोटे परिणामरूपी दुष्टोंकी सङ्गति नहीं करना, अथवा अनेक दोषोंकर सहित रागी द्व ेषी जीवोंकी भी सङ्गति कभी नहीं करना, यह तात्पर्य है ।
अथ मोहपरित्यागं दर्शयति
जोइय मोहु परिचयहि मोहु ण भल्लउ होइ ।
मोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ॥ १११ ॥
परमात्मप्रकाश
आगे मोहका त्याग करना दिखलाते हैं - ( योगिन् ) हे योगी, तू ( मोहं) मोहको (परित्यज) बिलकुल छोड़ दे, क्योंकि (मोहः ) मोह (भद्रः न भवति) अच्छा नहीं होता है, (मोहासक्तः ) मोहसे आसक्त (सकलं जगत् ) सब जगत् जीवोंको (दुःखं सहमानं) क्लेश भोगते हुए ( पश्य ) देख ।
तद्यथा
योगिन् मोहं परित्यज मोहो न भद्रो भवति ।
मोहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ।। १११।।
भावार्थ - जो आकुलता रहित है, वह दुःखका मूल मोह है । मोही जीवों को दुःख सहित देखो। वह मोह परमात्मस्वरूपकी भावनाका प्रतिपक्षी दर्शनमोह चारित्रमोहरूप है । इसलिये तू उसको छोड़ । पुत्र स्त्री आदिकमें तो मोहकी बात दूर रहे, यह तो प्रत्यक्ष में त्यागने योग्य ही है, और विषय-वासना के वश देह आदिक परवस्तुओं का रागरूप मोह - जाल है, वह भी सर्वथा त्यागना चाहिये । अन्तर बाह्य मोहका त्यागकर सम्यक् स्वभाव अंगीकार करना । शुद्धात्माकी भावनारूप जो तपश्चरण उसका साधक जो शरीर उसकी स्थिति के लिये अन्न जलादिक लिये जाते हैं, तो भी विशेष राग न करना, राग रहित नोरस आहार लेना चाहिये ॥ १११ ॥ स्थलसंख्यावहिर्भूतमाहारमोह विषय निराकरणसमर्थनार्थं
अथ
प्रक्षेपकत्रयमाह
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काऊरण णग्गरूवं बीभस्सं दडूड-मडय-सारिच्छं । हिलससि किं लज्जसि भित्राए भोयां मिट्टं ॥ १११६६२ ।।
कृत्वा नग्नरूपं बीभत्सं दग्धमृतकसदृशम् | अभिलसि किन लज्जसे भिक्षायां भोजनं मिष्टम् ||१११२ ॥