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इस प्रकार सोलहवानीके सोनेके दृष्टान्त द्वारा केवलज्ञानादि लक्षणसे सव जीव समान हैं, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे तेरह दोहा - सूत्र कहे । इस तरह मोक्षमार्ग, मोक्ष-फल, और मोक्ष इन तीनोंको कहनेवाले दूसरे महाधिकार में चार अन्तरस्थलोंका इकतालीस दोहोंका महास्थल समाप्त हुआ । इसमें शुद्धोपयोग, वीतरागस्वसंवेदनज्ञान, परिग्रह त्याग, और सब जीव समान हैं, ये कथन किया ।
परमात्मप्रकाश
आगे 'पर जाणंतु वि' इत्यादि एकसौ सात दोहा पर्यन्त तीसरा महाधिकार कहते हैं, उसीमें ग्रन्थको समाप्त करते हैं - ( परममुनयः) परममुनि ( परं जानतोऽपि ) उत्कृष्ट आत्मद्रव्यको जानते हुए भी ( परसंसर्ग) परद्रव्य जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, जोकमं उसके सम्बन्धको (त्यजंति ) छोड़ देते हैं । (येन) क्योंकि ( परसंसर्गेण ) परद्रव्यके सम्बन्धसे (लक्ष्यस्य) ध्यान करने योग्य जो ( परमात्मनः ) परमपद उससे ( चलति ) चलायमान हो जाते हैं ।
भावार्थ- शुद्धोपयोगी मुनि वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमें लीन हु परद्रव्यों के साथ सम्बन्ध छोड़ देते हैं । अन्दरके विकार रागादि भावकर्म और बाहर के शरीरादि ये सब परद्रव्य कहे जाते हैं । वे मुनिराज एक आत्मभाव के सिवाय सब परद्रव्यका संसर्ग ( सम्बन्ध ) छोड़ देते हैं । तथा रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी, असंयमी जीवोंका संबंध छोड़ देते हैं । इनके संसर्गसे परमपद जो वीतरागनित्यानन्द अमूर्त स्वभाव परमसमरसीभावरूप जो परमात्मतत्त्व ध्यावने योग्य है, उससे चलायमान हो जाते हैं, अर्थात् तीन गुप्तिरूप परमसमाधिसे रहित हो जाते हैं । यहांपर परमध्यानके घातक जो मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध परिणाम तथा रागो द्वेषी पुरुषोंका संसर्ग सर्वथा त्याग करना चाहिए यह सारांश है ||१०८ ||
अथ तमेव परद्रव्यसंसर्गत्यागं कथयति
जो सम-भावहं वाहिरउ ति सहुं मं करि संगु ।
चिंता - सायरि पडहि पर अराणु वि डज्झइ अंगु ॥ १०६ ॥
यः समभावादू वाह्यः तेन सह मा कुरु संगम् ।
चितासागरे पतसि परं अन्यदपि दह्यते अङ्गः ॥१०६॥
आगे उन्हीं परद्रव्योंके सम्बन्धको फिर छुड़ानेका कथन करते हैं- (यः) जी
कोई (समभावात् ) समभाव अर्थात् निजभावसे (बाह्य) बाह्य पदार्थ हैं, (तेन राह)