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परमात्मप्रकाश
[२०५ पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकनयकर शक्तिको अपेक्षा केवलज्ञानादि गुणरूप हैं । इमलिये यद्यपि यह जीव-राशि व्यवहारनयकर कर्माधीन है, तो भी निश्चयनयकर शक्तिरूप परब्रह्मस्वरूप है। इन जीवोंको ही परमविष्णु कहना, परमशिव कहना चाहिए । यही अभिप्राय लेकर कोई एक ब्रह्ममयी जगत् कहते हैं, कोई एक विष्णुपयी कहते हैं, कोई एक शिवमयी कहते हैं। यहांपर शिष्यने प्रश्न किया, कि तुम भी जीवोंको परब्रह्म मानते हो, तथा परमविष्णु परमशिव मानते हो, तो अन्यमत वालोंको क्यों दूषण देते हो ?
उसका समाधान-हम तो पूर्वोक्त नय विभागकर केवलज्ञानादि गुणकी अपेक्षा वीतराग सर्वज्ञप्रणीत मार्गसे जीवोंको ऐसा मानते हैं, तो दूषण नहीं है। वे इस तरह नहीं मानते हैं । वे एक कोई पुरुष जगत्का कर्ता हर्ता मानते हैं । इसलिये उनको दूषण दिया जाता है, क्योंकि जो कोई एक शुद्ध बुद्ध नित्य मुक्त है, उस शुद्ध बुद्धको कर्ता-हर्तापना हो ही नहीं सकता, और इच्छा है वह मोहकी प्रकृति है । भगवान् मोहसे रहित हैं, इसलिये कर्ता हर्ता नहीं हो सकते । कर्ता हर्ता मानना प्रत्यक्ष विरोध है । हम तो जीव-राशिको परमब्रह्म मानते हैं, उसी जीव राशिसे लोक भरा हुआ है । अन्यमती ऐसा मानते हैं, कि एक ही ब्रह्म अनन्त रूप हो रहा है । जो वही एक सवरूप हो रहा होवे, तो नरक निगोद स्थानकी कौन भोगे ? इसलिये जीव अनन्त हैं। इन जीवोंकी ही परमब्रह्म परमशिव कहते हैं, ऐसा तू निश्चयसे जान ।।१०७।।
इति पोडशवर्णिकासुवर्णदृष्टान्तेन केवलज्ञानादिलक्षणेन सर्वे जीवाः समाना भवन्तीति व्याख्यानमुख्यतया त्रयोदशसूत्रैरन्तरस्थलं गतम् । एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये चतुर्भिरन्तरस्थलः शुद्धोपयोगवीतरागस्वसंवेदनज्ञानपरिग्रहत्यागसर्वजीवसमानताप्रतिपादनमुख्यत्वे कचत्वारिंशत्सूत्रैमहास्थलं समाप्तम् | .
अत ऊचं 'परु जाणंतु वि' इत्यादि सप्ताधिकशतसूत्रपर्यन्ते स्थलसंख्यावहिभृतान् प्रक्षेपकान् विहाय चूलिकाव्याख्यानं करोति इति ।
पर जाणंतु वि परम-मुणि पर-संसग्गु चयंति । पर-संगई परमप्पयह लक्खहं जेण चलंति ॥१०८॥ परं जानन्तोऽपि परममुनयः परसंगर्ग त्यजन्ति । .... परसंगेन परमात्मनः लक्ष्यस्य येन चलन्ति ।।१०।। .