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परमात्मप्रकाश
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आंगें ऐसा कहते हैं, कि तू शुद्ध संग्रहनयकर जीवोंमें भेद मत कर--(एकं कुरु ) हे आत्मन्, तू जातिकी अपेक्षा सब जीवोंको एक जान, (मा द्वौ कार्षीः) इसलिये राग और द्वेष मत कर, (वर्णविशेष) मनुष्य जातिकी अपेक्षा ब्राह्मणादि वर्ण-भेदको भी (मा कार्षीः) मत कर, (येन) क्योंकि (एकेन देवेन) अभेदनयसे शुद्ध आत्माके ममान (एतद् अशेष) ये सब (त्रिभुवनं) तीनलोकमें रहनेवाली जीव-राशि (वसति) ठहरी हुई है, अर्थात् जीवपनेसे सब एक हैं ।
भावार्थ-सब जीवोंकी एक जाति है । जैसे सेना और वन एक हैं, वैसे जातिकी अपेक्षा सब जीव एक हैं। नर नारकादि भेद और ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्रादि वर्ण-भेद सब कर्मजनित हैं, अभेदनयने सब ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्रादि वर्णभेद सब कर्मजनित हैं, अभेदनयसे सब जीवोंको एक जानो। अनन्त जीवोंकर यह लोक भरा हुआ है। उस जीव-राशिमें भेद ऐसे हैं--जो पृथ्वीकायसूक्ष्म, जलकायसूक्ष्म, अग्निकायसूक्ष्म, वायुकायसूक्ष्म, नित्यनिगोदसूक्ष्म, इतरनिगोदसूक्ष्म--इन छह तरहके सूक्ष्म जीवोंकर तो यह लोक निरन्तर भरा हुआ है, सब जगह इस लोकमें सूक्ष्म जीव हैं । और पृथ्वीकायबादर, जलकायवादर, अग्निकायबादर, वायुकायबादर, नित्यनिगोद बादर, इतरनिगोदबादर, और प्रत्येक वनस्पति-ये जहां आधार है वहाँ हैं। सो कहीं पाये जाते हैं, कहीं नहीं पाये जाते, परन्तु ये भी बहुत जगह हैं।
इस प्रकार स्थावर तो तीनों लोकोंमें पाये जाते हैं, और दोइन्द्री, तीनइन्द्री, चारइन्द्री, पञ्चेन्द्रि तिर्यञ्च ये मध्यलोकमें ही पाये जाते हैं, अधोलोक ऊर्ध्वलोकमें नहीं । उसमें से दोइन्द्रो, तेइन्द्री, चौइन्द्री जीव कर्मभूमिमें ही पाये जाते हैं, भोगभूमिमें वहीं। भोगभूमिमें गर्भज पञ्चेन्द्री सैनी थलचर या नभचर ये दोनों जाति-तिर्यच हैं। मनुष्य मध्यलोकमें ढाई द्वीपमें पाये जाते हैं, अन्य जगह नहीं, देवलोक में स्वगवासी देव देवी पाये जाते हैं, अन्य पंचेन्द्री नहीं, पाताललोकमें ऊपरके भागमें भवन वासीदेव तथा व्यन्तरदेव और नीचेके भागमें सात नरकोंके नारकी पंचेन्द्रो हैं, अन्य कोई नहीं और मध्यलोकमें भवनवासी व्यन्तरदेव तथा ज्योतिपोदेव ये तीन जातिक देव और तियंञ्च पाये जाते हैं। इस प्रकार सजीव किसी जगह हैं, किसी जगह नहीं हैं।
इस तरह यह लोक जीवोंसे भरा हुआ है। सूक्ष्मस्थावरके बिना तो लोग का कोई भाग खाली नहीं है, सब जगह सूक्ष्मस्थावर भरे हुए हैं। ये सभी जीव मुद्ध