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परमात्मप्रकाश
[ २०३ जो संसार समुद्रसे तारनेके लिये जहाजके समान है। यहां ऐसा व्याख्यान जानकर राग द्वष मोहको तजकर परमशांतभावरूप शुद्धात्मामें लीन होना योग्य है ।।१०।।
अथ जीवानां योऽसौ भेदः स कर्मकृत इति प्रकाशयति___ जीवहं भेउ जि कम्म किउ कम्मु वि जीउ ण होइ ।
जेण विभिण्णउ होइ तहं कालु लहेविणु कोइ ॥१०६॥ जीवानां भेद एव कर्मकृतः कर्म अपि जीवो न भवति ।
येन विभिन्न : भवति तेभ्यः कालं लब्ध्वा कमपि ।।१०६॥
आगे जीवों में जो भेद हैं, वह सब कर्मजनित है, ऐसा प्रगट करते हैं-- (जीवानां) जीवोंमें (भेदः) नर नारकादि भेद (कर्मकृत एव) कर्मोसे ही किया गया है, और (कर्म अपि) कर्म भी (जीवः) जीव (न- भवति) नहीं हो सकता । (येन) क्योंकि वह जीव (कमपि) किसी (कालं) समयको (लब्ध्वा) पाकर (तेभ्यः) उन कर्मोसे (विभिन्नः) जुदा (भवति) हो जाता है ।
___ भावार्थ-कर्म शुद्धात्मासे जुदे हैं, शुद्धात्मा भेद-कल्पनासे रहित है। ये शुभाशुभकर्म जीवका स्वरूप नहीं हैं, जीवका स्वरूप तो निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव है अनादिकालसे यह जीव अपने स्वरूपको भूल रहा है, इसलिये रागादि अशुद्धोपयोगसे कर्मको बांधता है । सो कर्मका बंध अनादिकालका है । इस कर्मबन्धसे कोई एक जीव वीतराग परमात्माकी अनुभूतिके सहकारी कारणरूप जो सम्यक्त्वकी उत्पत्ति का समय उसको पाकर उन कर्मोसे जुदा हो जाता है । कर्मोसे छटनेका यही उपाय है, जो जीवके भवस्थिति समीप (थोड़ी) रही हो, तभी सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, और सम्यक्त्व उत्पन्न हो जावे, तभी कर्म-कलंकसे छूट सकता है । तात्पर्य यह है, कि जो टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक शुद्ध स्वभाव उससे विलक्षण जो स्त्री पुरुषादि शरीरके भेद उनको देखकर रागादि खोटे ध्यान नहीं करने चाहिये ।। १०६।।
अतः कारणात् शुद्धसंग्रहेण भेदं मा कापीरिति निरूपयति
एक्कु करे मण विरिण करि मं करि वरण-विसेसु । इकई देवई में वसह तिहुयणु एहु असेसु ॥१०७॥ एक गुरु मा द्वौ कुरु मा कुरु वर्णविशेषम् । एकेन देवेन येन वसति त्रिभुवनं एतदु अशेपम् ।।१०७।।