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________________ २०० ] परमात्मप्रकाश चाहिये, क्योंकि उनके मतमें वस्तु एक है । परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता, इसलिगे उनका वस्तु एक मानना वृथा है, ऐसा जानो ।।१०१।। अथ जीवानां निश्चयनयेन योऽसौ देहभेदेन भेदं करोति स जीवानां दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं न जानातीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं कथयति देह विभेयई जो कुणइ जीवई भेउ विचित्तु । सोणवि लक्खणु मुणइ तहं दसणु णाणु चरित्तु ॥१०२।। देहविभेदेन यः करोति जीवानां भेद विचित्रम् । स नैव लक्षणं मनुते तेषां दर्शन ज्ञानं चारित्रम् ॥१०२।। आगे जीव ही को जानते हैं, परन्तु उसके लक्षण नहीं जानते, यह अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं-(यः) जो (देहविभेदेन) शरीरोंके भेदसे (जीवानां) जीवोंका (विचित्रं) नानारूप (भेदं) भेद (करोति) करता है, (स) वह (तेषां) उन जीवोंका (दर्शनं ज्ञानं चारित्रं) दर्शन ज्ञान चारित्र (लक्षणं) लक्षण (नव मनुते) वहीं जानता, अर्थात् उसको गुणोंकी परीक्षा (पहचान) नहीं है । भावार्थ-देहके ममत्वके मूल कारण ख्याति (अपनी बड़ाई) पूजा और लाभरूप जो आर्त रोद्रस्वरूप खोटे ध्यान उनसे निज शुद्धात्माका ध्यान उसके अभावसे इस जीवने उपार्जन किये जो शुभ अशुभ कर्म उनके उदयसे उत्पन्न जो शरीर है, उसके भेदसे भेद मानता है, उसको दर्शनादि गुणोंकी गम्य नहीं है। यद्यपि पापके उदयसे नरक-योनि, पुण्यके उदयसे देवोंका शरीर और शुभाशुभ मिश्रसे नर-देह तथा मायाचारसे पशुका शरीर मिलता है, अर्थात् इन शरीरोंके भेदोंसे जीवोंकी अनेक चेप्टाय देखी जाती हैं, परन्तु दर्शन ज्ञान लक्षणसे सब तुल्य हैं। उपयोग लक्षणके बिना कोई जीव नहीं है। इसलिये ज्ञानीजन सबको समान जानते हैं। निश्चयनयसे दर्शन ज्ञान चारित्र जीवोंके लक्षण हैं, ऐसा जानकर ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र, चाण्डालादि देहके भेद देखकर राग द्वेष नहीं करना चाहिये। सब जीवोंसे मैत्रीभाव करना यहा तात्पर्य है ॥१०२॥ अथ शरीराणि यादरसूक्ष्माणि विधिवशेन भवन्ति न च जीवा इति दर्शयति अंगई सुहमई वादरई विहि-वसिं होंति जे वाल । जिय पुणु सयल वि तित्तडा सव्वत्थ वि सय-काल ॥१०३।।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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