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परमात्मप्रकाश
[ १६६ भावसे मोक्ष मिलता है । कैसा है वह मोक्षस्थान, जो अत्यन्त अद्भुत अचिन्त्य केवलज्ञानादि अनन्त गुणोंका स्थान है । यहां यह व्याख्यान जानकर राग द्वषको छोड़के शुद्धात्माके अनुभवरूप जो समभाव उसका सेवन सदा करना चाहिये । यही इस ग्रन्थ का अभिप्राय है ॥१०॥
अथ सर्वजीवसाधारणं केवलज्ञानदर्शनलक्षणं प्रकाशयति
जीवहं दसणु णाणु जिय लक्खणु जाणइ जो जि । देह-विभेए भेउ तहं णाणि कि मण्णइ सो जि ॥१०१॥ जीवानां दर्शनं ज्ञानं जीव लक्षणं जानाति य एव । देहविभेदेन भेदं तेषां ज्ञानी किं मन्यते तमेव ।।१०१।।
आगे सब जीवोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन साधारण लक्षण हैं, इनके बिना कोई जीव नहीं है। ये गुण शक्तिरूप सब जीवोंमें पाये जाते हैं, ऐसा कहते हैं(जीवानां) जीवोंके (दर्शनं ज्ञानं) दर्शन और ज्ञान (लक्षणं) निज लक्षणको (य एव) जो कोई (जानाति) जानता है, (जीव) हे जीव, (स एव ज्ञानी) वही ज्ञानी (देहविभेदेन) देहके भेदसे (तेषां भेदं) उन जीवोंके भेदको (किं मन्यते) क्या मान सकता है, नहीं मान सकता । . . . . . . .. भावार्थ-तीन लोक और तीन कालवर्ती समस्त द्रव्य गुण पर्यायोंको एक ही समयमें जानने में समर्थ जो केवल दर्शन केवलज्ञान है, उसे निज लक्षणोंसे जो कोई जानता है, वही सिद्ध-पद पाता है। जो ज्ञानी अच्छी तरह इन निज लक्षणोंको जान लेवे वह देहके भेदसे जीवोंका भेद नहीं मान सकता । अर्थात देहसे उत्पन्न जो विषयसुख उनके रसके आस्वादसे विमुख शुद्धात्माकी भावनासे रहित जो जीव उसने उपार्जन किये जो ज्ञानावरणादिकर्म, उनके उदयसे उत्पन्न हुए देहादिकके भेदसे जीवोंका भेद, वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी कदापि नहीं मान सकता । देहमें भेद हुआ तो क्या, गुणसे सब समान हैं, और जीव जातिकर एक हैं।
____ यहां पर जो कोई ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्ती नाना जीवोंको नहीं मानते हैं, और वे एक ही जीव मानते हैं, उनकी यह बात अप्रमाण है। उनके मतमें एक ही जीवके माननेसे बड़ा भारी दोष होता है । वह इस तरह है, कि एक जीवके जीने मरने सुख दुःखादिके होनेपर सब जीवोंके उसी समय जीवना, मरना, सुख, दुःखादि होना .