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परमात्मप्रकाश
[ २०१ अङ्गानि सूक्ष्माणि बादराणि विधिवशेन भवन्ति ये बालाः । ... जीवाः पुनः सकला अपि तावन्तः सर्वत्रापि सदाकाले ॥१०३॥ .. .
आगे सूक्ष्म बादरशरीर जीवोंके कर्मके सम्बन्धसे होते हैं, सो सूक्ष्म बादर स्थावर जंगम ये सब शरीरके भेद हैं, जीव तो चिद्रूप है, सब भेदोंसे रहित है, ऐसा दिखलाते हैं- (सूक्ष्मारिण) सूक्ष्म (बादराणि) और बादर (अंगानि) शरीर (ये) तथा जो (बालाः) बाल वृद्ध तरुणादि अवस्थायें (विधिवशेन) कर्मोसे (भवंति) होती हैं, (पुनः) और (जीवाः) जीव तो (सकलाअपि) सभी (सर्वत्र) सब जगह (सर्वकाले अपि) और सब कालमें (तावंतः) उतने प्रमाण ही अर्थात् असंख्यातप्रदेशी ही है ।
भावार्थ-जीवोंके शरीर व बाल वृद्धादि अवस्थायें कर्मों के उदयसे होती हैं । अर्थात् अङ्गोंसे उत्पन्न हुए जो पंचेन्द्रियोंके विषय उनकी वांछा जिनका मूल कारण है, ऐसे देखे सुने भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप निदान बन्धादि खोटे ध्यान उनसे विमुख जो शुद्धात्माकी भावना उससे रहित इस जीवने उपार्जन किये शुभाशुभ कर्मोंके योगसे ये चतुर्गतिके शरीर होते हैं, और बाल वृद्धादि अवस्थायें होती हैं। ये अवस्थायें कर्मजनित हैं, जीवकी नहीं हैं।
हे अज्ञानी जीव, यह बात तू निःसन्देह जान । ये सभी जीव द्रव्य-प्रमाणसे अनन्त हैं, क्षेत्र की अपेक्षा एक एक जीव यद्यपि व्यवहारनयकर अपने मिले हुए देहके प्रमाण हैं, तो भी निश्चयनयकर लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं। सब लोकमें सब कालमें जीवोंका यही स्वरूप जानना। वादर सूक्ष्मादि भेद कर्मजनित होना समझकर (देखकर) जीवोंमें भेद मत जानो। विशुद्ध ज्ञान दर्शनकी अपेक्षा सब हो जीव समान हैं, कोई भी जीव दर्शन ज्ञान रहित नहीं है, ऐसा जानना ॥१०३॥ . .
अथ जीवानां शत्रुमित्रादिभेदं यः न करोति सः निश्चयनयेन जीवलक्षणं नानातीति प्रतिपादयति
सत्त वि मित्तु वि अप्पु परु जीव असेसु वि एइ । एक्कु करेविणु जो मुणइ सो अप्पा जाणेइ ॥१०४॥ शत्रुरपि मित्रमपि आत्मा परः जीवा अशेषा अपि एते । एकत्वं कृत्वा यो मनुते स आत्मानं जानाति ।।१०४॥