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परमात्मप्रकाश
[ १६५ जीवहं तिहयण-संठियहं मूढा भेउ करंति । केवल-णाणिं णाणि फुड सयलु वि एक्कु मुणंति ॥६६॥ जीवानां त्रिभुवनसंस्थितानां मूढा भेदं कुर्वन्ति ।।
केवलज्ञानेन ज्ञानिनः स्फुट सकलमपि एकं मन्यन्ते ।।१६।। .. आगे तीन लोकमें रहनेवाले जीवोंका अज्ञानी भेद करते हैं। जोवपनेसे कोई कम बढ़ नहीं हैं, कर्मके उदयसे शरोर-भेद हैं, परन्तु द्रव्यकर सब समान हैं । जैसे सोने में वान-भेद है, वैसे हो परके सयोगसे भेद मालूम होता है, तो भी सुवर्णपनेसे सव समान हैं, ऐसा दिखलाते हैं- (त्रिभुवनसंस्थितानां) तीन भुवनमें रहनेवाले (जीवानां) जावोंका (मूढाः) मूर्ख हो (भेदं) भेद (कुर्नति) करते हैं, और (ज्ञानिनः) ज्ञानी जीव (केवलज्ञानेन) केवलज्ञानसे (स्फुट) प्रगट (सकलमपि) सब जीवोंको (एकं मन्यते) समान जानते हैं।
भावार्थ-व्यवहारनयकर सोलहवानके सुवर्ण भिन्न भिन्न वस्त्रोंमें लपेटें तो वस्त्रके भेदसे भेद है, परन्तु सुवर्णपनेसे भेद नहीं है, उसी प्रकार तीन लोकमें तिष्ठे हुए जीवोंका व्यवहारनयसे शरीरके भेदसे भेद है, परंतु जोवपनेसे भेद नहीं है । देहका भेद देखकर मूढ जीव भेद मानते हैं, और वीतराग स्वसंवेदनज्ञानी जीवपनेसे सब जीवोंको समान मानता है । सभी जीव केवलज्ञानवेलिके कन्द सुख-पंक्ति हैं, कोई कम बढ़ नहीं है ।।६६॥
अथ केवलज्ञानादिलक्षणेन शुद्धसंग्रहनयेन सर्वे जीवाः समाना इति कथयति
जीवा सयल वि णाण-मय जम्मण-मरण-विमुक्क । जीव-पएसहि सयल सम सयल वि सगुणहिं एक ॥१७॥ जीवाः सकला अपि ज्ञानमया जन्ममरण विमुक्ताः। जीवप्रदेशः सकलाः समाः सकला अपि स्वगुणैरेके ||१७||
आगे केवलज्ञानादि लक्षणसे शुद्धसंग्रहनकर सब जीव एक हैं, ऐसा कहते हैं-(सकलाअपि) सभी (जीवाः) जीव (ज्ञानमयाः) ज्ञानमयी हैं, और (जन्ममरणविमुक्ताः) (जीवप्रदेशः) अपने-अपने प्रदेशोंसे (सकलाः समाः) सब समान हैं, ( अपि ) और ( सकलाः ) सब जीव (स्वगुणैः एके ) अपने केवलज्ञानादि गुणों से . समान हैं।