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परमात्मप्रकाश
जो भत्तउ रयण-त्तयह तसु मुणि लक्खणु एउ। . अच्छउ कहिं वि कुडिल्लियइ सो तसु करइ ण भेउ ॥६५॥ यः भक्तः रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं इदम् । तिष्ठतु कस्यामपि कुद्रयां स तस्य करोति न भेदम् ।।१५।।
इस तरह इकतालीस दोहोंके महास्थलमें परिग्रह त्यागके व्याख्यानको मुख्यतासे आठ दोहोंका तीसरा अन्तरस्थल पूर्ण हुआ। आगे तेरह दोहोंतक शुद्ध निश्चयसे सब जीव केवलज्ञानादिगुणसे समान हैं, इसलिये सोलहवान (ताव) के सुवर्ण की तरह भेद नहीं है, सब जीव समान हैं, ऐसा निश्चय करते हैं ।
वह ऐसे हैं-(य ) जो मुनि (रत्नत्रयस्य) रत्नत्रयकी (भक्तः) आराधना (सेवा) करनेवाला है, (तस्य) उसके (इदं लक्षणं) यह लक्षण (मन्यस्व) जानना कि (कस्यामपि कुड्यां) किसी शरीरमें जीव (तिष्ठतु) रहे,. (सः) वह जानी (तस्य भेद) उस जीवका भेद (न करोति) नही करता, अर्थात् देहके भेदसे गुरुता लघुताका भेद करता है, परन्तु ज्ञानदृष्टि से सबको समान देखता है ।
भावार्थ-वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी निश्चयरत्नत्रयका आराधकका ये लक्षण प्रभाकरभट्ट तू निःसन्देह जान, जो किसी शरीर में कर्म के उदयसे जीव रहे, परन्तु निश्चयसे शुद्ध बुद्ध (ज्ञानी) ही है। जैसे सोने में वान-भेद है, वैसे जीवोंमें वान-भेद नहीं है, केवलज्ञानादि अनन्त गुणोंसे सब जीव समान हैं । ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, हे भगवन्, जो जोवोंमें देहके भेदसे भेद नहीं है, सब समान है। तब जो वेदान्ती एक ही आत्मा मानते हैं, उनको क्यों दोप देते हो ? तब श्रीगुरु उसका समाधान करते हैं-कि शुद्धसंग्रहनयसे सेना एक ही कही जाती है, लेकिन सेनामें अनेक हैं, तो भी ऐसे कहते हैं, कि सेना आयी, सेना गयी, उसी प्रकार जातिको अपेक्षासे जीवोंके भेद नहीं हैं, सव एक जाति हैं, और व्यवहारनयसे व्यक्तिको अपेक्षा भिन्न-भिन्न हैं, अनन्त जीव हैं, एक नहीं है। जैसे वन एक कहा जाता है, और वृक्ष जुदे जुदे हैं, उसी तरह जातिसे जीवोंमें एकता है, लेकिन द्रव्य जुदे जुदे हैं, तथा जम सेना एक है, परन्तु हाथी घोड़े रथ सुभट अनेक हैं, उसो तरह जीवों में जानना ।।६५॥
अथ त्रिभुवनस्थजीवानां मृढा भेदं कुर्वन्ति, ज्ञानिनम्तु भिन्न भिन्नमवर्णानां पाटनवणिकत्यवत्केवलज्ञानलक्षणेनैकत्वं जानन्तीति दर्शयति