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परमात्मप्रकाश
[ १६३ (परमार्थ) परमार्थ को (नैव बुध्यते) नहीं जानता, (जिनः भणति) ऐसा जिनेश्वरदेव कहते हैं । . भावार्थ-निर्दोष परमात्मासे पराङ मुख जो पूर्वसूत्र में कहे गये सचित्त
अचित्त मिश्र परिग्रह हैं, उनसे अपनेको महन्त मानता है, जो मैं बहुत पढ़ा हूँ। ऐसा जिसके अभिमान है, वह परमार्थ यानी वीतराग परमानन्दस्वभाव निज आत्माको नहीं जानता । आत्म-ज्ञानसे रहित है, यह निःसन्देह जानो ।।३।।
ग्रन्थेनात्मानं महान्तं मन्यमानः सन् परमार्थं कस्मान्न जानातीति चेत्
बुज्झतहं परमत्थु जिय गुरु लहु अस्थि ण कोइ । जीवा सयल वि बंभु परु जण वियाणइ सोइ ॥४॥ बुध्यमानानां परमार्थं जीव गुरुः लघुः अस्ति न कोऽपि । जीवा: सकला अपि ब्रह्म परं येन विजानाति सोऽपि ॥१४॥
आगे शिष्य प्रश्न करता है, कि जो ग्रन्थसे अपनेको महन्त मानता है, वह परमार्थको क्यों नहीं जानता ? इसका समाधान आचार्य करते हैं-(जीव) हे जीव, (परमार्थ) परमार्थको (बुध्यमानानां) समझनेवालोंके (कोऽपि) कोई जीव (गुरुः लघुः) वड़ा छोटा (न अस्ति) नहीं है, (सकला अपि) सभी (जीवाः) जीव (परब्रह्म) परमब्रह्मस्वरूप हैं, (येन) क्योंकि निश्चयनयसे (सोऽपि) वह सम्यग्दृष्टि एक भी जीव (विजानाति) सबको जानता है ।
भावार्थ-जो परमार्थको नहीं जानता, वह परिग्रहसे गुरुता समझता है, और परिग्रहके न होनेसे लघुपना जानता है, यही भूल है । यद्यपि गुरुता लघुता कर्मके आवरणसे जीवोंमें पायी जाती है, तो भी शुद्धनयसे सब समान हैं, तथा ब्रह्म अर्थात् सिद्धपरमेष्ठी केवलज्ञानसे सबको जानते हैं, सवको देखते हैं, उसी प्रकार निश्चयनयसे सम्यग्दृष्टि सब जीवोंको शुद्धरूप ही देखता है ।।१४।।
- एवमेकचत्वारिंशत्सूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परिग्रहपरित्यागव्याख्यानमुख्यतया सूत्राष्टकेन तृतीयमन्तरस्थलं समाप्तम् । अत ऊर्ध्वं त्रयोदशमनपर्यन्तं शुद्धनिश्चयेन सर्वे जीवाः केवलज्ञानादिगुणैः समानास्तेन कारणेन पोटशवर्णिकासुवर्णव दो नास्तीति प्रतिपादयति ।
तद्यथा