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परमात्मप्रकाश
मात्मा के ध्यानको (त्यजंति ) छोड़ देते हैं, (ते अपि मुनयः ) वे ही मुनि (कोला. निमित्त) लोहेके कीलेके लिए अर्थात् कीलेके समान असार इन्द्रिय-सुख के निमित्त (देवकुलं) मुनिपद योग्य शरीररूपी देवस्थानको तथा (देव) आत्मदेवको (दहंति) भवको आतापसे भस्म कर देते हैं ।
भावार्थ - जिस समय ख्याति पूजा लाभके अर्थ शुद्धात्माको भावनाको छोड़कर अज्ञान भावों में प्रवर्त होते हैं, उस समय ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध होता है । उस ज्ञानावरणादिके बन्धसे ज्ञानादि गुणका आवरण होता है । केवलज्ञानावरणसे केवलज्ञान ढंक जाता है, मोहके उदयसे अनन्तसुख, वीर्यान्तरायके उदयसे अनन्तबल, और केवलदर्शनावरणसे केवलदर्शन आच्छादित होता है । इसप्रकार अनन्तचतुष्टयका आवरण हो रहा है । उस अनन्तचतुष्टयके अलाभमें परमौदारिक शरीरको नहीं पाता, क्योंकि जो उसी भवमें मोक्ष जाता है, उसीके परमोदारिक शरीर होता है । इसलिये जो कोई समभाव में शुद्धात्मा की भावना करे, तो अभी स्वर्ग में जाकर पीछे विदेहों में मनुष्य होकर मोक्ष पाता है । ऐसा ही कथन दूसरी जगह शास्त्रों में लिखा है, कि तपसे स्वर्ग तो सभी पाते हैं, परन्तु जो कोई ध्यानके योग से स्वर्ग पाता है, वह परभवमें सासते (अविनाशी) सुखको (मोक्षको ) पाता है । अर्थात् स्वर्गसे आकर मनुष्य होके मोक्ष पाता है, उसीका स्वर्ग पाना सफल है, और जो कोरे ( अकेले ) तपसे स्वर्ग पार्क फिर संसारसे भ्रमता है, उसका स्वर्ग पाना वृथा है ।।२।।
अथ यो वाह्याभ्यन्तरं परिग्रहेणात्मानं महान्तं मन्यते स परमार्थं न जानातीति दर्शयति
अप मराइ जो जि मुखि गरुयउ गंथहि तत्थु ।
सो परमत्थे जिणु भाइ रात्रि बुझइ परमत्थु ॥ ३ ॥
आत्मानं मन्यते य एव मुनिः गुरुकं ग्रन्थः तथ्यम् । स परमार्थेन जिनो भणति नैव बुध्यते परमार्थम् ||१३||
आगे जो बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहसे अपने को महन्त मानता है, वह परमार्थव नहीं जानता, ऐसा दिखलाते हैं -- ( य एव ) जो ( मुनिः) मुनि (ग्रंथः) बाह्य परि (आत्मानं) अपनेको (गुरकं) महन्त ( बड़ा ) ( मन्यते ) मानता है, अर्थात् परिग्रह हो गौरव जानता है, (तथ्यं ) निश्चय से (सः) वही पुरुष ( परमार्थेन ) वास्तव में