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परमात्मप्रकाश
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समान मोहके दूर करनेके लिये वैराग्य धारण करके औषधि समान जो उपकरणादि उनको हो ग्रहण करके उन्होंका अनुरागी (प्रेमी) होता है, उनकी वृद्धिसे सुख मानता है, वह औषधिका ही अजीर्ण करता है । मात्रा प्रमाण औषधि लेवें, तो वह रोगको हर सके । यदि औषधिका ही अजीर्ण करे - मात्रासे अधिक लेवे, तो रोग नहीं जाता, उलटी रोगकी वृद्धि ही होती है । यह निःसन्देह जानना ।
इससे यह निश्चय हुआ जो परमोपेक्षासंयम अर्थात् निर्विकल्प परमसमाधिरूप तीन गुप्तिमयी परम शुद्धोपयोगरूप-संयमके धारक हैं, उनके शुद्धात्माकी अनुभूति से विपरीत सब ही परिग्रह त्यागने योग्य हैं । शुद्धोपयोगी सुनियोंके कुछ भी परिग्रह नहीं है, और जिनके परमोपेक्षा संयम नहीं लेकिन व्यवहार संयम है, उनके भावसंयमकी रक्षा के निमित्त होन संहननके होनेपर उत्कृष्ट शक्तिके अभावसे यद्यपि तपका साधन शरीरकी रक्षा के निमित्त अन्न जलका ग्रहण होता है, उस अन्न जलके लेनेसे मलमूत्रादिकी बाधा भी होती है, इसलिये शौचका उपकरण कमण्डलु, और संयमोपकरण पोछी, और ज्ञानोपकरण पुस्तक इनको ग्रहण करते हैं, तो भी इनमें ममता नहीं है, प्रयोजनमात्र प्रथम अवस्थामें धारते हैं ।
ऐसा दूसरी जगह " रम्येषु" इत्यादिसे कहा है, कि मनोज़ स्त्री मादिक वस्तुओं में जिसने मोह तोड़ दिया है, ऐसा महामुनि संयम के साधन पुस्तक पीछी कमण्डलु आदि उपकरणोंमें वृथा मोहको कैसे कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता | जैसे कोई बुद्धिमान पुरुष रोग के भय से अजीर्णको दूर करना चाहे और अजीर्ण के दूर करने के लिये औषधिका सेवन करे, तो क्या मात्रासे अधिक ले सकता है ? ऐसा कभी नहीं करेगा, मात्राप्रमाण ही लेगा ||८६ ॥
अथ केनापि जिनदीक्षां गृहीत्वा शिरोलुञ्जनं कृत्वापि सर्वसंगपरित्यागमकुर्वतात्मा वञ्चित इति निरूपयति-
केण विप वंचियउ सिरु चिवि छारेण ।
सयल व संगण परिहरिय जिरणवर - लिंगधरेण ॥ ६०||
केनापि आत्मा वञ्चितः शिरो लुञ्चित्वा क्षारेण । सकला अपि संगा न परिहृता जिनवर लिङ्गवरेण