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परमात्मप्रकाश
आगे शिष्योंका करना, पुस्तकादिका संग्रह करना, इन बातोंसे अज्ञानी प्रसन्न होता है, और ज्ञानीजन इनको बन्धके कारण जानता हुआ इनसे रागभाव नहीं करता, इनके संग्रह में लज्जावान् होता है - ( मूढः ) अज्ञानीजन ( शिष्याजिकापुस्तकैः ) चेला चेली पुस्तकादिसे ( तुष्यति ) हर्षित होता है, ( निर्भ्रान्तः ) इसमें कुछ सन्देह नहीं है, ( ज्ञानी) और ज्ञानोजन ( एतेः) इन बाह्य पदार्थों से ( लज्जते ) शरमाता है, क्योंकि इन सबोंको (बंधस्य हेतु) बन्धका कारण (जानन् ) जानता है ।
भावार्थ–सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्ररूप जो निज शुद्धात्मा उसको न श्रद्धान करता, न जानता और न अनुभव करता जो मूढात्मा वह पुण्यबन्धके कारण जिनदीक्षा दानादि शुभ आचरण और पुस्तकादि उपकरण उनको मुक्तिके कारण मानता है, और ज्ञानोजन इनको साक्षात् पुण्यबन्धके कारण जानता है, परम्पराय मुक्ति के कारण मानता है । यद्यपि व्यवहारनयकर बाह्य सामग्रीको धर्मका साधन जानता है, तो भी ऐसा मानता है, कि निश्चयनयसे मुक्तिके कारण नहीं हैं
अथ चट्ट पट्टकुण्डिकाद्युपकरणैर्मोहमुत्पाद्य मुनिवराणां उत्पथे पात्यते [?] इति प्रतिपादयति
चहहिं पहिं कुडियहिं चेल्ला - चेल्लिएहिं । मोहुजविणु सुणिवरहं उप्पाहि पाडिय तेहिं ॥८६॥
चट्ट : पट्टः कुण्डिकाभिः शिष्याजिकाभिः ।
मोहं जनयित्वा मुनिवराणां उत्पथे पातितास्तैः ||८||
आगे कमंडलु पीछी पुस्तकादि उपकरण और शिष्यादिका संघ ये मुनियोंको मोह उत्पन्न कराके खोटे मार्ग में पटक देते हैं - (चट्ट : पट्टे : कुडिकाभिः) पीछो कर्मडल पुस्तक और ( शिष्याजिकाभिः ) मुनि श्रावकरूप चेला, अर्जिका, श्राविका इत्यादि चेली - ये संघ (मुनिवराणां ) मुनिवरोंको (मोहं जनयित्वा ) मोह उत्पन्न कराके (तैः)
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वे (उत्पथे) उन्मार्ग में ( खोटे मार्ग में ) ( पातिताः ) डाल देते हैं ।
भावार्थ - जैसे कोई अजोणके भयसे मनोज आहारको छोड़कर लङ्घन करता है, पीछे अजीणंको दूर करनेवाली कोई मीठी औषधिको लेकर जिल्लाका लपटी होक मात्राने अधिक लेके औषधिका ही अजीर्ण करता है, उसी तरह अज्ञानी कोई लिंगी यतो विनयवान् पतिव्रता स्त्री आदिको मोहके इरसे छोड़कर जिनदीक्षा लेके अजी