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परमात्मप्रकाश
लेहं इच्छइ मूदु पर भुव वि एहु असेसु । बहु वह धम्म- मिसेण जिय दोहिं वि एहु विसेसु ॥८७॥
लातु इच्छति मूढः परं भुवनमपि एतद् अशेषम् । बहुविधधर्ममिषेण जीव द्वयोः अपि एष विशेषः ||८७||
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इस प्रकार इकतालीस दोहोंके महास्थलके मध्य में पन्द्रह दोहोंमें वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी मुख्यतासे दूसरा अन्तरस्थल समाप्त हुआ ।
अब परिग्रहत्यागके व्याख्यानको आठ दोहों में कहते हैं - (द्वयोः अपि) ज्ञानी और अज्ञानी इन दोनों में (एष विशेषः) इतना ही भेद है, कि ( मूढः) अज्ञानीजन ( बहुविधधर्ममिषेण ) अनेक तरहके धर्मके बहानेसे ( एतद् अशेषं) इस समस्त (भुवनं अपि) जगत् को ही (परं) नियमसे (लातुं इच्छति ) लेने की इच्छा करता है, अर्थात् सद संसारके भोगोंकी इच्छा करता है, तपश्चरणादि कायक्लेश से स्वर्गादिके सुखों को चाहता है, और ज्ञानीजन कर्मोंके क्षयके लिये तपश्चरणादि करता है, भोगोंका अभिलाषी नहीं है ।
भावार्थ - वीतराग सहजानन्द अखण्डसुखका आस्वादरूप जो शुद्धात्मा वही आराधने योग्य है, ऐसी जो रुचि वह सम्यग्दर्शन, समस्त मिथ्यात्व रागादि आस्रवसे भिन्नरूप उसी परमात्माका जो ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान और उसीमें निश्चल चित्तको वृत्ति वह सम्यक् चारित्र, यह निश्चय रत्नत्रयरूप जो शुद्धात्माकी रुचि जिसके नहीं, ऐसा मूढजन आत्माको नहीं जानता हुआ, ओर नहीं अनुभवता हुआ जगत् के समस्त भोगों को धर्मके बहानेसे लेना चाहता है, तथा ज्ञानीजन समस्त भोगों से उदास है, जो विद्यमान भोग थे, वे सब छोड़ दिये और आगामी वांछा नहीं है ऐसा जानना ||८७|| अथ शिष्यकरणाद्यनुष्ठानेन पुस्तकाद्युपकरणेनाज्ञानी तुष्यति, ज्ञानी पुनर्वन्धहेतु जानन् सन् लज्जां करोतीति प्रकटयति
चेल्ला-वेल्ली-पुत्थियहिं तूसइ मूदु णिभंतु । एहिं लज्जइ गायिड बंधहं हेउ मुतु ॥ शिष्याजिकापुस्तकैः तुष्यति मूढो निर्भ्रान्तिः । एतैः लज्जते ज्ञानी बन्वस्य हेतु जानन् ||८