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परमात्मप्रकाश
आगे ऐसा कहते हैं, जिसने जिनदीक्षा धरके केशोंका लोंच किया, और सकल परिग्रहका त्याग नहीं किया, उसने अपनी आत्मा ही को वंचित किया -- (केनापि ) जिस किसीने ( जिनवलिंगधरेण ) जिनवरका भेष धारण करके (क्षारेण ) भस्मसे ( शिरः ) शिरके केश (लुं चित्वा ) लौंच किये, ( उखाड़े ) लेकिन ( सकला अपि संगाः ) सब परिग्रह ( न परिहृताः) नहीं छोड़े, उसने ( आत्मा ) अपनी आत्माको हो ( वंचितः) ठग लिया |
भावार्थ -- वीतराग निर्विकल्पनिजानन्द अखंडरूप सुखरसका जो आस्वाद उसरूप परिणमी जो परमात्मा की भावना वही हुआ तीक्ष्ण शस्त्र उससे बाहिर के और अन्तरके परिग्रहोंकी वांछा आदि ले समस्त मनोरथ उनकी कल्लोल मालाओंका त्याग - रूप मनका मुंडन वह तो नहीं किया, और जिनदीक्षारूप शिरोमुंडन कर भेष रखा, सव परिग्रहका त्याग नहीं किया, उसने अपनी आत्मा ठगी | ऐसा कथन समझकर निज शुद्धात्मा की भावनासे उत्पन्न, वीतराग परम आनन्दस्वरूपको अंगीकार करके तीनोंकाल तीनों लोकमें मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनाकर देखे सुने अनुभवे जो परिग्रह उनकी वांछा सर्वथा त्यागनी चाहिये । ये परिग्रह शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत हैं ॥६०॥
अथ ये सर्वसंगपरित्यागरूपं जिनलिङ्ग गृहीत्वापीष्टपरिग्रहान् गृह्णन्ति ते हर्दि कृत्वा पुनरपि गिलन्ति तामिति प्रतिपादयति-
जे जि- लिंग धरेवि मुखि इट्ठ- परिग्गह लेंति ।
छहि करेविगु ते जि. जिय सा पुग्णु छद्दि गिलंति ॥ ६१ ॥
ये जिनलिङ्ग घूत्वापि मुनय इष्टपरिग्रहान् लान्ति ।
छर्दि कृत्वा ते एव जीव तां पुनः छदि गिलन्ति ॥ ६१॥
आगे जो सर्वसंगके त्यागरूप जिन मुद्राको ग्रहण कर फिर परिग्रहको धारण
करता है, वह वमन करके पीछे निगलता है, ऐसा कथन करते हैं -- ( ये ) जो ( मुनयः ) मुनि (जिनल) जिन लिंगको (घृत्वापि ) ग्रहणकर ( इष्टपरिग्रहान् ) फिर भी इच्छित परिग्रहों को (लांति) ग्रहण करते हैं, (जीव) हे जीव, (ते एव) वे ही (छदि कृत्वा) वमन करके (पुनः) फिर (तां छदि) उस वमनको पीछे (गिलंति) निगलते हैं ।