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परमात्मप्रकाश
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं चित्ते न लगति अन्यत् । मरकतः येन परिज्ञातः तस्य काचेन कुतो गणना ॥ ७८ ॥
आगे इसी कथनको दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं - ( ज्ञानमयं आत्मानं ) केवलज्ञानादि अनन्तगुणमयी आत्माको (मुक्त्वा) छोड़कर ( अन्यत्) दूसरी वस्तु (चित्त) ज्ञानियोंके मनमें (न लगति) नहीं रुचति । उसका दृष्टान्त यह है, कि ( येन ) जिसने ( मरकतः ) मरकतमणि (रत्न) (परिज्ञातः) जान लिया, ( तस्य ) उसको ( काचेन ) कांचसे (कि गणनं ) क्या प्रयोजन है ?
भावार्थ - जिसने रत्न पा लिया, उसको कांचके टुकड़ोंकी क्या जरूरत है ? उसी तरह जिसका चित्त आत्मामें लग गया, उसके दूसरे पदार्थोंकी वांछा नहीं रहती । अथ कर्मफलं भुञ्जानः सन् योऽसौ रागद्वेषं करोति स कर्म बनातीति कथयति
भुं जंतु विशिय कम्म-फलु मोहइ जो जि करेइ ।
भाउ सुंदर सुंदरु वि सो पर कम्मु जइ ॥७६॥
कथयति
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भुञ्जनोऽपि निजकर्मफलं मोहेन य एव करोति ।
भावं असुन्दरं सुन्दरमपि स परं कर्म जनयति ॥७६॥
आगे कर्म-फलको भोगता हुआ जो राग द्वेष करता है, वह कर्मोंको बांधता है - ( य एव ) जो जीव ( निजकर्मफलं ) अपने कर्मों के फलको (भुंजानोऽपि ) भोगता हुआ भी (मोहन) मोहसे (असुंदरं सुंदरं श्रपि ) भले और बुरे (भावं ) परिणामोंको ( करोति ) करता है, (सः) वह ( परं ) केवल ( कर्म जनयति ) कर्मको उपजाता ( बांधता ) है |
भावार्थ- वीतराग परम बाह्लादरूप शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत जो अशुद्ध रागादिक विभाव उनसे उपार्जन किये गये शुभ अशुभ कर्म उनके फलको भोगता हुआ जो अज्ञानी जीव मोहके उदयसे हर्प विषाद भाव करता है, वह नये कर्मों का बन्ध करता है । सारांश यह है, कि जो निज स्वभावसे च्युत हुआ उदयमें आये हुए कर्मोंमें राग द्वेष करता है, वही कर्मोंको वांचता है ||७६||
मथ उद्यागते कर्मानुभवे योऽसौ रागद्वेषौ न करोति स कर्म न बनातीनि