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परमात्मप्रकाश
[ १८१ भुजंतु वि णिय-कम्म-फलु जो तहिं राउ ण जाइ । सो णवि बंधइ कम्मु पुणु संचिउ जेण विलाइ ॥८॥ भुजानोऽपि निजकर्म फलं यः तत्र रागं न याति । .
स नैव बध्नाति कर्म पुनः संचितं येन विलीयते ।।८।।
आगे जो उदयप्राप्त कर्मोंमें राग द्वष नहीं करता, वह कर्मोको भी नहीं बांधता, ऐसा कहते हैं-(निजकर्मफलं) अपने बांधे हुए कर्मोके फलको (भुजानोऽपि) भोगता हुआ भी (तत्र) उस फलके भोगनेमें (यः) जो जीव (राग) राग द्वषको (न याति) नहीं प्राप्त होता (सः) वह (पुनः कर्म) फिर कर्मको (नैव) नहीं (बध्नाति) बांधता, (येन) जिस कर्मबंधाभाव परिणामसे (संचितं) पहले बांधे हुए कर्म भी (विलीयते) नाश हो जाते हैं।
भावार्थ-निज शुद्धात्माके ज्ञानके अभावसे उपार्जन किये जो शुभ अशुभ कर्म उनके फलको भोगता हुआ भी वीतराग चिदानन्द परमस्वभावरूप शुद्धात्मतत्त्वको भावनासे उत्पन्न अतीन्द्रियसुखरूप अमृतसे तृप्त हुआ जो रागी द्वषी नहीं होता, वह जीव फिर ज्ञानावरणादि कर्मोको नहीं बांधता है, और नये कर्मोका बंधका अभाव होने से प्राचीन कर्मोकी निर्जरा ही होती है । यह संवरपूर्वक निर्जरा ही मोक्षका मूल है ? ऐसा कथन सुनकर प्रभाकर भट्टने प्रश्न किया, कि हे प्रभो, “कर्म के फलको भोगता हुआ भी ज्ञानसे नहीं बघता" ऐसा सांख्य आदिक भी कहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ?
उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं हम तो आत्मज्ञान संयुक्त ज्ञानी जीवोंकी अपेक्षासे कहते हैं, वे ज्ञानके प्रभावसे कर्म-फल भोगते हुए भी राग द्वेष भाव नहीं करते । इसलिये उनके नये बंधका अभाव है, और जो मिथ्यादृष्टि ज्ञानभावसे वाह्य पूर्वोपार्जित कर्म-फलको भोगते हुए रागी द्वेषी होते हैं, उनके अवश्य बंध होता है । इस तरह सांख्य नहीं कहता, वह वीतरागचारित्रसे रहित कथन करता है। इसलिए उन सांख्यादिकोंको दूषण दिया जाता है । यह तात्पर्य जानना ।।८।।
अथ यावत्कालमणुमात्रमपि रागं न मुञ्चति तावत्कालं कर्मणा न मुच्यते इति प्रतिपादयति