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परमात्मप्रकाश
[ १७६ वैसे ही आत्मज्ञानमें विषयोंकी अभिलाषा (इच्छा) नहीं शोभती। यह निश्चयसे जानना । शास्त्रका ज्ञान होने पर भी जो निराकुलता न हो, और आकुलताके उपजानेवाले आत्मीक-सृखके वैरी रागादिक जो वृद्धिको प्राप्त हों, तो वह ज्ञान किस कामका ? ज्ञान तो वह है, जिससे आकुलता मिट जावे । इससे यह निश्चय हुआ, कि बाह्य पदार्थों का ज्ञान मोक्ष-फलके अभावसे कार्यकारी नहीं है ।।७६।।
अथ ज्ञानिनां निज़शुद्धात्मस्वरूपं विहाय नान्यत्किमप्युपादेयमिति दर्शयति
अप्पा मिल्लिवि णाणियहं अण्णु ण सुदरु वत्थु । " तेण श विसयहं मणु रमइ जाणंतहं परमत्थु ॥७७।।
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानिनां अन्यन्न सुन्दरं वस्तु । ... . तेन न विषयेषु मनो रमते जानतां परमार्थम् ।।७७॥
आगे ज्ञानी जीवोंके निज शुद्धात्मभावके बिना अन्य कुछ भी आदरने योग्य नहीं है, ऐसा दिखलाते हैं-(आत्मानं) आत्माको (मुक्त्वा) छोड़कर (ज्ञानिनां) ज्ञानियों को (अन्यद् वस्तु) अन्य वस्तु (सुंदरं न) अच्छी नहीं लगती, (तेन) इसलिये (परमार्थ जानतां) परमात्म-पदार्थको जाननेवालोंका (मनः) मन (विषयाणां) विषयों में (न रमते) नहीं लगता । . .
भावार्थ-मिथ्यात्व रागादिकके छोड़ने से निज शुद्धात्म द्रव्यके यथार्थ ज्ञानकर जिनका चित्त परिणत हो गया है, ऐसे ज्ञानियोंको शुद्ध युद्ध परम स्वभाव परमात्माको छोड़के दूसरी कोई भी वस्तु सुन्दर नहीं भासती । इसीलिये उनका मन कभी विषयवासनामें नहीं रमता । ये विषय कैसे हैं । जो कि शुद्धात्माकी प्राप्तिके शत्रु हैं। ऐसे ये भव-भ्रमणके कारण हैं, कामभोगरूप पांच इन्द्रियोंके विषय उन में मूढ़ जीवोंका ही मन रमता है, सम्यग्दृष्टिका मन नहीं रमता । कैसे हैं सम्यग्दृष्टि, जिन्होंने वीतराग सहजानन्द अखण्ड सुख में तन्मय परमात्मतत्त्वको जान लिया है। इसलिये यह नि हआ, कि जो विषय-वासनाके अनुरागो हैं, वे अज्ञानी हैं, और जो ज्ञानीजन हैं, वे विषय-विकारसे सदा विरक्त ही हैं ।।७७।।
अथ तमेवार्थं दृष्टान्तेन समर्थयति
अप्पा मिल्लिवि णाणमउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु । मरगउ जें परियाणियउ तहुँ कच्चे कउ गण्णु ॥७८||