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परमात्मप्रकाश
आत्मा के जानने से है । यहां शिष्यने प्रश्न किया, कि निदानबन्ध रहित आत्मज्ञान तुमने बतलाया, उसमें निदानबन्ध किसे कहते हैं ?
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उसका समाधान – जो देखे सुने और भोगे हुए इन्द्रियोंके भोगोंसे जिसका चित्त रङ्ग रहा है, ऐसा अज्ञानी जीव रूप लावण्य सोभाग्यका अभिलाषी वासुदेव चक्रवर्ती-पदके भोगोंकी वांछा करे, दान पूजा तपश्चरणादिकर भोगोंकी अभिलाषा करे, वह निदानबन्ध है, सो यह बड़ी शल्य ( कांटा ) है । इस शल्यसे रहित जो आत्मज्ञान उसके बिना शब्द - शास्त्रादिका ज्ञान मोक्षका कारण नहीं है । क्योंकि वीतरागस्वसंवेदनज्ञान रहित तप भी दुःखका कारण है । ज्ञान रहित तपसे जो संसारकी सम्पदायें मिलती हैं, वे क्षणभंगुर हैं । इसलिये यह निश्चय हुआ, कि आत्मज्ञानसे रहित जो शास्त्रका ज्ञान और तत्पश्चरणादि हैं, उनसे मुख्यताकर पुण्यका बन्ध होता है । उस पुण्यके प्रभावसे जगत्की विभूति पाता है, वह क्षणभंगुर है । इसलिये अज्ञानियोंका तप और श्रुत यद्यपि पुण्यका कारण है, तो भी मोक्षका कारण नहीं है ||७५ || अथ येन मिथ्यात्वरागादिवृद्धिर्भवति तदात्मज्ञानं न भवतीति निरूपयतितं य-गाणु जि होइ ण वि जेण पवडूढ राउ । दियर - किरणहं पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ ॥ ७६ ॥
तत् निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः । दिनकरकिरणानां पुरतः जीव कि विलसति तमोरागः ॥ ७६ ॥ आगे जिससे मिथ्यात्व रागादिककी वृद्धि हो, वह आत्मज्ञान नहीं है, ऐसा निरूपण करते हैं - (जीव) हे जीव, (तत्) वह (निजज्ञानं एव) वीतराग नित्यानंद अखण्डस्वभाव परमात्मतत्त्वका परिज्ञान हो ( नावि) नहीं (भवति) है, (येन) जिससे (रागः) परद्रव्यमें प्रीति ( प्रवर्धते ) बढ़े, (दिनकर किरणानां पुरतः ) सूर्य की किरणों आगे (तमोरागः) अन्धकारका फैलाव ( कि विलसति) कैसे शोभायमान हो सकता है ? नहीं हो सकता |
भावार्थ- शुद्धात्मा की भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परम आनन्द उसके शत्रु पंचेन्द्रियोंके विषयोंको अभिलाषा जिसमें हो, वह निज (आत्म) ज्ञान नहीं है, ज्ञान ही है | जिस जगह वीतरागभाव है, वही सम्यग्ज्ञान है । इसी बातको दृष्टान्त देकर दृढ़ करते हैं, सो सुनो । हे जीव, जैसे सूर्यके प्रकाशके आगे अन्धेरा नहीं शोभा देता,