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परमात्मप्रकाश
[ १७७ हमारी दुष्टताको कोई नहीं जान सकता, ऐसा समझकर वीतराग परमानन्द सुखरसके अनुभवरून चित्तकी शुद्धिको नहीं करता, तया बाहरसे वगुलाकासा भेष मायाचाररूप लोकरंजनके लिये धारण किया है, यही सत्य है, इसी भेषसे हमारा कल्याण होगा, इत्यादि अनेक विकल्पोंकी कल्लोलोंसे अपवित्र है, ऐसे (कस्यापि) किसी अज्ञानीके (मोक्षपदं) मोक्ष-पदवी (जीव) हे जीव, (मा द्राक्षोः) मत देख अर्थात् विना सम्यग्ज्ञान के मोक्ष नहीं होता । उसका दृष्टान्त कहते हैं।
.. (बहुना) बहुत (सलिलविलोडितेन) पानीके मथनेसे भी (करः) हाथ (चिक्कणो) चोकना (न भवति) नहीं होता । क्योंकि जल में चिकनापन है ही नहीं। जैसे जलमें चिकनाई नहीं है, वैसे बाहिरी भेषमें सम्यग्ज्ञान नहीं है । सम्यग्ज्ञानके बिना महान् तप करो, तो भी मोक्ष नहीं होता। क्योंकि सम्यग्ज्ञानका लक्षण वीतराग शुद्धात्माकी अनुभूति है, वही मोक्षका मूल है। वह सम्यग्ज्ञानसम्यग्दर्शनादिसे भिन्न नहीं है, तीनों एक हैं ।।७४।।
. अथ निश्चयनयेन यनिजात्मवोधज्ञानवाह्यं ज्ञानं तेन प्रयोजनं नास्तीत्यभिप्रायं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति. . .जं णिय-वोहहं वाहिरउ णाणु वि कज्जु ण तेण ।
दुक्खहं कारणु जेण तउ जीवहं होइ खणेण ॥७॥ · यत् निजबोधाबाह्य ज्ञानमपि कार्य न तेन ।
दुःखस्य कारणं येन तपः जीवस्य भवति क्षणेन ।।७।। .. आगे निश्चयकर आत्मज्ञानसे बहिर्मुख बाह्य पदार्थोंका ज्ञान है, उससे प्रयोजन नहीं सधता, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर कहते हैं-(यत्) जो (निजवोधात) आत्मज्ञानसे (बाह्य) बाहर (रहित) (ज्ञानमपि) शास्त्र वगैरका ज्ञान भी है, (तेन) उस ज्ञानसे (कार्य न) कुछ काम नहीं (येन) क्योंकि (तपः) वीतरागस्वसंवेदनज्ञान रहित तप (क्षणेन) शीघ्र ही (जीवस्य) जीवको (दुःखस्य कारणं) दुःखका कारण (भवति) होता है।
भावार्थ-निदानबन्ध आदि तीन शल्योंको आदि ले समस्त विषयाभिलापरूप मनोरथोंके विकल्पजालरूपी अग्निकी ज्वालाओंसे रहित जो निजसम्यग्ज्ञान है. उसने रहित बाह्य पदार्थोंका शास्त्रद्वारा ज्ञान है, उससे कुछ काम नहीं । कार्य तो एक निज