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परमात्मप्रकाश
ही कहलाती है, उसी तरह वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके कहनेसे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीनों आ जाते हैं । सांख्यादिकके मतमें वीतराग विशेषण नहीं है, और सम्यक् विशेषण नहीं है, केवल ज्ञानमात्र ही कहते हैं, सो वह मिथ्याज्ञान है, इसलिये दूषण देते हैं, यह जानना ।।७२।।
अथ तमेवार्थं विपक्ष दूषणद्वारेण द्रढयतिदेउ णिरंजणु इउं भणइ णाणिं मुक्खु ण भंति । णाण-विहीणा जीवडा चिरु संसारु भमंति ॥७३॥ देवः निरञ्जन एवं भणति ज्ञानेन मोक्षो न भ्रान्तिः । ज्ञान विहीना जीवाः चिरं संसारं भ्रमन्ति ।।७३।।
आगे इसी अर्थको विपक्षीको दूषण देकर दृढ़ करते हैं-(निरंजनः) अनन्त ज्ञानादि गुण सहित, और अठारह दोष रहित, जो (देवः) सर्वज्ञ वीतरागदेव हैं, वे (एवं) ऐसा (भणति) कहते हैं, कि (ज्ञानेन) वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान से ही (मोक्षः) मोक्ष है, (न भ्रांतिः) इसमें सन्देह नहीं है । और (ज्ञानविहीनाः) स्वसंवेदनज्ञानकर रहित जो (जीवाः) जीव हैं, वे (चिरं) बहुत कालतक (संसारं) संसारमें (भ्रमंति) भटकते हैं।
भावार्थ-यहां वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमें यद्यपि सम्यक्त्वादि तीनों हैं, तो भी मुख्यता सम्यग्ज्ञानकी ही है। क्योंकि श्रीजिनवचनमें ऐसा कथन किया है, कि जिसका कथन किया जावे, वह मुख्य होता है, अन्य गौण होता है, ऐसा जानना ॥७३।।
अथ पुनरपि तमेवार्थ दृष्टान्तदान्तिकाभ्यां निश्चिनोति---
णाण-विहीणहं मोक्ख-पउ जीव म कासु वि जोड़। बहुए सलिल-विरोलियई करु चोप्पडउ ण होइ ॥७॥ ज्ञानविहोनस्य मोक्षपदं जीव मा कस्यापि अद्राक्षीः । बहना सलिलविलोडितेन करः चिक्कणो न भवति ।।७४।।
आगे फिर भी इसी कथनको दृष्टान्त और दाप्टांतसे निश्चित करते हैं(ज्ञानविहीनस्य) जो सम्यग्ज्ञानकर रहित मलिन चित्त है, अर्थात् अपनी बड़ाई प्रतिष्ठा लाभादि दुप्ट भावोंसे जिसका चित्त परिणत हुआ है, और मन में ऐसा जानता है, कि