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परमात्मप्रकाश,
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अन्य नहीं है । और शुभ अशुभ इन दोनोंमेंसे अशुभ तो नरक निगोदका कारण है, किसी तरह उपादेय नहीं है— है है, तथा शुभोपयोग प्रथम अवस्थामें उपादेय है, और परम अवस्था में उपादेय नहीं
है, हेय है ।।७१।।
एवमेकचत्वारिंशत्सूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये सूत्रपञ्चकेन शुद्धोपयोगव्याख्यानमुख्यत्वेन
प्रथमान्तरस्थलं गतम् ।
अत ऊर्ध्वं तस्मिन्नव महास्थलमध्ये पञ्चदशसूत्रपर्यन्तं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानीमुख्यत्वेन व्याख्यानं क्रियते । तद्यथा
दाणिं भइ भोउ पर इंदत्तगु वि तवेण । जम्मण-मरण-1 - विवजियर पर लग्भइ णाणेण ॥ ७२ ॥
तो शुद्धोपयोग ही है, सब प्रकारसे निषिद्ध है,
दानेन लभ्यते भोगः परं इन्द्रत्वमपि तपसा । जन्ममरणविवर्जितं पदं लभ्यते ज्ञानेन ॥७२॥
इसप्रकार इकतालीस दोहोंके महास्थल में पांच दोहोंमें शुद्धोपयोगका व्याख्यान किया । आगे पन्द्रह दोहोंमें वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं - ( दानेन ) दानसे (परं) नियम करके (भोगः ) पांच इंद्रियों के भोग (लभ्यते) प्राप्त होते हैं, (अपि) और (तपसा) तपसे (इंद्रत्वं ) इन्द्र- पद मिलता है, तथा (ज्ञानेन ) वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसे (जन्ममरणविवर्जितं ) जन्म जरा मरणसे रहित (पदं) जो मोक्ष-पद वह (लभ्यते) मिलता है ।
भावार्थ - आहार अभय औषध और शास्त्र इन चार तरहके दानों को यदि सम्यक्त्व रहित करे, तो भोगभूमिके सुख पाता है, तथा सम्यक्त्व सहित दान करे, तो परम्पराय मोक्ष पाता है । यद्यपि प्रथम अवस्था में देवेन्द्र चक्रवर्ती आदिकी विभूति भी पाता है, तो भी निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानकर मोक्ष ही है । यहां प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, कि हे भगवन्, जो ज्ञानमात्रसे ही मोक्ष होता है, तो सांख्यादिक भी ऐसा ही कहते हैं, कि ज्ञानसे ही मोक्ष है, उनको क्यों दूषण देते हो ? तब श्रीगुरूने कहा - इस जिनशासनमें वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन सम्यग्ज्ञान कहा गया है, सो वीतराग कहने से वीतरागचारित्र भी आ जाता है, और सम्यक् पदके कहने से सम्यक्त्व भी आ जाता । जैसे एक चूर्ण में अथवा पाकमें अनेक मौषधियां आ जाती हैं, परन्तु वस्तु एक