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परमात्मप्रकाश शुद्धात्म-भावनासे च्युत हुआ, अशुद्ध भावोंसे कर्मोको बांधता है। इसलिये हमेशा चित्तकी शुद्धता रखनी चाहिये । ऐसा ही कथन दूसरी जगह भी "कंखिद" इत्यादि गाथासे कहा है, इस लोक और परलोकके भोगोंका अभिलाषी और कषायोंसे कालिमारूप हुआ अवर्तमान विषयोंका वांछक और वर्तमान विषयोंमें अत्यन्त आसक्त हुआ अति मोहित होनेसे भोगोंको नहीं भोगता हुआ भी अशुद्ध भावोंसे कर्मोंको बांधता है ।।७०॥
अथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयं कथयति
सुह परिणामें धम्मु पर असुहे होइ अहम्मु । दोहिं वि एहिं विवज्जियउ सुद्धण बंधइ कम्मु ॥७१॥ शुभ परिणामेन धर्मः परं अशुभेन भवति अधर्मः । द्वाभ्यामपि एताभ्यां विवजितः शुद्धो न बघ्नाति कर्म ।।७१।।
आगे शुभ अशुभ और शुद्ध इन तीन उपयोगोंको कहते हैं-(शुभपरिणामेन) दान पूजादि शुभ परिणामोंसे (धर्मः) पुण्यरूप व्यवहारधर्म (परं) मुख्यतासे (भवति) होता है, (अशुभेन) विषय कषायादि अशुभ परिणामोंसे (अधर्मः) पाप होता है। (अपि) और (एताभ्यां) इन (द्वाभ्यां) दोनोंसे (विजितः) रहित (शुद्धः) मिथ्यात्व रागादि रहित शुद्ध परिणाम अथवा परिणामधारी पुरुष (कर्म) ज्ञानावरणादि कर्मको (न) नहीं (बध्नाति) बांधता।
भावार्थ-जैसे स्फटिकमणि शद्ध उज्ज्वल है, उसके जो काला डंक लगाय, तो काला मालम होता है, और पीला डंक लगावें तो पीला भासता है, और यदि कुछ भी न लगावें, तो शुद्ध स्फटिक ही है, उसी तरह यह आत्मा क्रमसे अशुभ शुभ शुद्ध इन परिणामोंसे परिणत होता है। उनमेंसे मिथ्यात्व और विषय कपायादि अशुभक अवलम्बन (सहायता) से तो पापको ही बांधता है, उसके फलसे नरक निगोदादिक दुःखोंको भोगता है और अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पांच परमेष्ठियोंके गुणस्मरण और दानपूजादि शुभ क्रियाओंसे संसारकी स्थितिका छेदनेवाला जो तीर्थकरनामकर्म उसको आदि ले विशिष्ट गुणरूप पुण्यप्रकृतियोंको दवांछीक वृत्तिम वांधता है। तथा केवल शुद्धात्माके अवलम्बनल्प शुद्धोपयोगसे उसी भव में केवल ज्ञानादि अनन्तगुणल्प मोक्षको पाता है। इन तीन प्रकारके उपयोगों में से सर्वथा उपादर