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परमात्मप्रकाश
सिद्ध ेः सम्बन्धी पन्थाः भावो विशुद्ध एकः ।
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यः तस्माद्भावात् मुनिश्चलति स कथं भवति विमुक्तः ||६||
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आगे शुद्ध भाव ही मोक्षका मार्ग है, ऐसा दिखलाते हैं - (सिद्ध: संबंधी ) मुक्तिका ( पंथाः) मार्ग ( एक: विशुद्धः भावः ) एक शुद्ध भाव ही है । (यः मुनिः ) जो मुनि ( तस्मात् भावात् ) उस शुद्ध भावसे ( चलति ) चलायमान हो जावे, तो (सः) वह (कथं ) कैसे ( विमुक्तः) मुक्त (भवति) हो सकता है ? किसी प्रकार नहीं हो
सकता ।
भावार्थ - जो समस्त शुभाशुभ संकल्प विकल्पोंसे रहित जीवका शुद्ध भाव है, वही निश्चयरत्नत्रयस्वरूप मोक्षका मार्ग है । जो मुनि शुद्धात्म परिणामसे च्युत हो जावे, वह किस तरह मोक्षको पा सकता है ? नहीं पा सकता । मोक्षका मार्ग एक शुद्ध भाव ही है, इसलिये मोक्षके इच्छुकको वही भाव हमेशा करना चाहिये ||६|| अथ क्वापि देशे गच्छ किमप्यनुष्ठानं कुरु तथापि चित्तशुद्धि विना मोक्षो नास्तीति प्रकटयति
जहिं भावइ तहिं जाहि जिय जं भावइ करि तं जि । केइ मोक्खु प्रत्थि पर चित्तहं सुद्धि ण जं जि ॥७०॥
यत्र भाति तत्र याहि जीव यदु भाति कुरु तदेव ।
कथमपि मोक्षः नास्ति परं चित्तस्य शुद्धिर्न यदेव ||७०||
आगे यह प्रकट करते हैं, कि किसी देशमें जावो, चाहे जो तप करो, तो भी चित्ती शुद्धि के बिना मोक्ष नहीं है - (जीव) हे जीव, (यत्र ) जहां (भाति) तेरी इच्छा ही (तत्र) उसी देश में (याहि) जा, और (यत्) जो (भाति) अच्छा लगे, (तदेव ) वही (कुरु) कर, (परं) लेकिन (यदेव) जबतक (चित्तस्य शुद्धिः न ) मनकी शुद्धि नहीं है, तबतक ( कथमपि ) किसी तरह (मोक्षो नास्ति ) मोक्ष नहीं हो सकता ।
भावार्थ - बड़ाई, प्रतिष्ठा, परवस्तुका लाभ, और देखे सुने भोगे हुए भोगों की वांछारूप खोटें ध्यान, ( जो कि शुद्धात्मज्ञानके शत्रु हैं ) इनसे जब तक यह चित्त रंगा हुआ है, अर्थात् विषय- कषायोंसे तन्मयी है, तबतक हे जीव; किसी देश में जा, तीर्थादकों में भ्रमण कर, अथवा चाहे जैसा आचरण कर, किसी प्रकार मोक्ष नहीं है । सारांश यह है कि काम-क्रोधादि खांटे ध्यानसे यह जीव भोगोंके सेवन के बिना भो