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अशुद्ध परिणाम अपने नहीं हैं, सो शुद्ध भावको ही ( धर्म भणित्वा) धर्म समझकर (गृह्णीयाः) अङ्गीकार करो। (यः) जो आत्मधर्म (चतुर्गतिदुःखेभ्यः) चारों गतियों के दु:खोंसे (पतंतं) संसारमें पड़े हुए ( इमं जीवं) इस जीवको निकालकर ( धरति ) आनंदस्थान में रखता है |
परमात्मप्रकाश
भावार्थ - धर्म शब्दका शब्दार्थ ऐसा है, कि संसार में पड़ते हुए प्राणियों को निकालकर मोक्ष - पदमें रखे वह धर्म है, वह मोक्ष-पद देवेन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रोंकर वन्दने योग्य है । जो आत्माका निज स्वभाव है वही धर्म है, उसी में जिनभाषित सब धर्म पाये जाते हैं । जो दयास्त्ररूप धर्म है, वह भी जीवके शुद्ध भावोंके बिना नहीं होता, यति श्रावकका धर्म भी शुद्ध भावोंके बिना नहीं होता, उत्तम क्षमादि दशलक्षणधर्म भी शुद्ध भाव बिना नहीं हो सकता, और रत्नत्रयधर्म भी शुद्ध भावोंके बिना नहीं हो सकता । ऐसा ही कथन जगह जगह ग्रन्थों में है, "सदुदृष्टि" इत्यादि श्लोकसे - उसका अर्थ यह है, कि धर्म के ईश्वर भगवान्ने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनोंको धर्म कहा है । जिस धर्मके ये ऊपर कहे गये लक्षण हैं, वह राग, द्वेष, मोह रहित परिणाम धर्म है, वह जीवका स्वभाव ही है, क्योंकि वस्तुका स्वभाव ही धर्म है । ऐसा दूसरी जगह भी "धम्मो" इत्यादि गाथासे कहा है, कि जो आत्म-वस्तुका स्वभाव है, वह धर्म है, उत्तम क्षमादि भावरूप दस प्रकारका धर्म है, रत्नत्रय धर्म है, और जीवोंकी रक्षा यह धर्म है । यह जिनभाषित धर्म चतुर्गतिके दुःखोंमें पड़ते हुए जीवोंको उद्धारता है । यहां शिष्यने प्रश्न किया, कि जो पहले दोहे में तो तुमने शुद्धोपयोग में संयमादि सब गुण कहे, और यहां आत्माका शुद्ध परिणाम ही धर्म कहा है, उसमें धर्म पाये जाते हैं, तो पहले दोहे में और इसमें क्या भेद है ?
उसका समाधान --- पहले दोहे में तो शुद्धोपयोग मुख्य कहा था, और इस दोहे में धर्म मुख्य कहा है। शुद्धापयोगका ही नाम धर्म है, तथा धर्मका नाम ही शुद्धोपयोग है । शब्दका भेद है, अर्थका भेद नहीं है । दोनोंका तात्पर्य एक है । इसलिए सब तरह शुद्ध परिणाम ही कर्तव्य हैं, वही धर्म है ||६८ || अथ विशुद्धभाव एव मोक्षमार्ग इति दर्शयति
सिद्धिहिं केरा पंथडा भाउ विसुन्दर एक्कु । जो तसु भावहं मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्कु ॥ ६६ ॥