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परमात्मप्रकाश
[ १६७ पापेन नारकः तिर्यग् जीवः पुण्येनामरी विजानीहि ।
. मिश्रेण मनुष्यगति लभते यारपि क्षये निर्वाणम् ।।६३।। - आगे पहले दो सूत्रोंमें कहे गये पुण्य और पाप फल हैं, उनको दिखाते हैं(जीवः) यह जीव (पापेन) पापके उदयसे (नारकः तिर्यग्) नरकगति और तिर्यञ्चगति पाता है, (पुण्येन) पुण्यसे (अमरः) देव होता है, (मिश्रेण) पुण्य और पाप दोनोंके मेलसे (मनुष्यति) मनुष्यगतिको (लभते) पाता है, और (द्वयोरपि क्षये) पुण्य पाप दोनों के ही नाश होनेसे (निर्वाणं) मोक्षको पाता है ऐसा (विजानीहि) जानो।
भावार्थ-सहज शुद्ध ज्ञानानन्द स्वभाव जो परमात्मा है, उससे विपरीत जो पापकर्म उसके उदयसे नरक तिर्यञ्चगतिका पात्र होता है, आत्मस्वरूपसे विपरीत शुभ कर्मोके उदयसे देव होता है. दोनोंके मेल से मनुष्य होता है, और शुद्धात्मस्वरूपसे विपरीत इन दोनों पुण्य पापोंके क्षयसे निर्वाण (मोक्ष) मिलता है। मोक्षका कारण एक शुद्धोपयोग है, वह शुद्धोपयोग निज शुद्धात्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप है। इसलिये इस शुद्धोपयोगके बिना किसी तरह भी मुक्ति नहीं हो सकती. यह सारांश जानो। ऐसा ही सिद्धान्त-ग्रन्थों में भी हरएक जगह कहा गया है। जैसेयह जीव पापसे नरक तिर्यञ्चगतिको जाता है, और धर्म (पुण्य) से देवलोक में जाता है, पुण्य पाप दोनोंके मेलसे मनुष्यदेहको पाता है, और दोनोंके क्षयसे मोक्ष पाता है।
अथ निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनस्वरूपे स्थित्वा व्यवहारप्रतिक्रमण प्रत्याख्यानालोचनां त्यजन्तीति निकलेन कथयति
वंदणु णिंदणु पडिकमणु पुराणहं कारणु जेण । करइ करावइ अणमणइ एक्कु वि णाणि ण तेण ॥४॥ वन्दनं निन्दनं प्रतिक्रमणं पुण्यस्य कारणं येन ।
करोति कारयति अनुमन्यते एकमपि ज्ञानी न तेन ।।६४॥
आगे निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याल्यान, और निश्चयआलोचनारूप जो शुद्धोपयोग उसमें ठहरकर व्यवहारप्रतिक्रमण, व्यवहारप्रत्याख्यान, और व्यवहारआलोचनारूप शुभोपयोगको छोड़े, ऐसा कहते हैं-( वंदनं ) पञ्चपरमेष्ठीकी वंदना, (निंदनं) अपने अशुभ कर्मकी निंदा, और (प्रतिक्रमणं) अपरावोंकी प्रायश्चित्तादि विधिसे निवृत्ति, ये सव (येन पुण्यस्य कारणं) जो पुण्य के कारण है,