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________________ १६६ ] परमात्मप्रकाश स्थितिके छेदनेके लिये विषय कषायकर उत्पन हुए आर्त रौद्र खोटे ध्यानोंके नाशका कारण श्रीपंचपरमेष्ठीके गुणों का स्मरण करते हैं, और दान पूजादिक करते हैं, परंतु उनकी दृष्टि केवल निज परिणति पर है, परवस्तु पर नहीं है। पंचपरमेष्ठीकी भक्ति आदि शुभ क्रियाको परिणत हुए जो भरत आदिक हैं, उनके विना चाहे पुण्यप्रकृतिका आस्रव होता है। जैसे किसानकी दृष्टि अन्न पर है, तृण भूसादिपर नहीं है। विना चाहा पुण्यका बन्ध सहज में ही हो जाता है। वह उनको संसार में नहीं भटका सकता है । वे तो शिवपुरीके ही पात्र हैं ।।६१॥ अथ देवशास्त्रमुनीनां योऽसौ निन्दा करोति तस्य पापबन्धो भवतीति कथयति देवहं सत्थहं मुणिवरहं जो विद्दसु करेइ । णियमें पाउ हवेइ तसु . जे संसारु भमेइ ॥६२॥ देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां यो विद्वषं करोति । नियमेन पापं भवति तस्य येन संसारं भ्रमति ।। ६२।। . . आगे देव शास्त्र गुरूकी जो निंदा करता है, उसके महान् पापका बन्ध होता है, वह पापी पापके प्रभावसे नरक निगोदादि खोटी गतिमें अनन्तकाल तक भटकता है- (देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां) वीतरागदेव, जिनसूत्र, और निथमुनियोंसे (यः) जो जीव (विद्वषं) द्वष (करोति) करता है, (तस्य) उसके (नियमेन) निश्चयसे (पापं) पाप (भवति) होता है, (येन) जिस पापके कारणसे वह जीव (संसारं) संसारमें (भ्रमति) भ्रमण करता है । अर्थात् परम्पराय मोक्षके कारण और साक्षात् पुण्ययन्धके कारण जो देव शास्त्र गुरू हैं, इनकी जो निंदा करता है, उसके नियमसे पाप होता है, पापसे दुर्गतिमें भटकता है । भावार्थ-निज परमात्मद्रव्यकी प्राप्तिकी रुचि वही निश्चयसम्यक्त्व, उसका कारण तत्त्वार्थश्रद्धानरूप व्यवहारसम्यक्त्व, उसके मूल अरहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरू, और दयामयी धर्म, इन तीनोंकी जो निन्दा करता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है। वह मिथ्यात्वका महान् पाप बांधता है। उस पापसे चतुगंति संसारमें भ्रमता है ॥६२।। अथ पूर्वमत्र द्वयोक्तं पुण्यपापफलं दर्शयतिपावें णारउ तिरिउ जिउ पुगणे अमन वियाणु । मिस्से माणुस-गइ लहइ दोहि वि खइ णिवाणु ॥१३॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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