________________
[ १६५
प्रसिद्ध हैं, परन्तु अब बड़ा अचम्भा है, कि इस पंचमकाल में लेशमात्र भी गुण नहीं हैं, तो भी उनके उद्धतपना है, यानी गुण तो रंचमात्र भी नहीं, और अभिमान में वृद्धि रहती है ||६०||
अथ देवशास्त्रगुरुभक्त्या मुख्यवृत्त्या पुण्यं भवति न च मोक्ष इति प्रतिपादयतिदेवहं सत्यहं मुणिवरहं भत्ति पुराण हवेइ |
कम्म-क्खउ पुणु होइ गवि अजउ संति भइ ॥ ६१ ॥
परमात्मप्रकाश
देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां भक्त्या पुण्यं भवति । कर्मक्षयः पुनः भवति नैव आर्यः शान्तिः भणति ॥ ६१ ॥
आगे देव गुरु शास्त्रकी भक्तिसे मुख्यतासे तो पुण्यबन्ध होता है, उससे परम्पराय मोक्ष होता है, साक्षात् मोक्ष नहीं, ऐसा कहते हैं - ( देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां ) श्रीवीतरागदेव, द्वादशाङ्ग शास्त्र और दिगम्बर साधुओंकी ( भक्त्या ) भक्ति करने से (पुण्यं भवति) मुख्यतासे पुण्य होता है ( पुनः ) लेकिन ( कर्मक्षयः ) तत्काल कर्मोंका क्षय (नैव भवति) नहीं होता, ऐसा ( आर्यः शांतिः) शान्ति नाम आर्य अथवा कपट रहित संत पुरुष ( भणति ) कहते हैं |
भावार्थ – सम्यक्त्वपूर्वक जो देव गुरु शास्त्रकी भक्ति करता है, उसके मुख्य तो पुण्य ही होता है, और परम्पराय मोक्ष होता है । जो सम्यक्त्व रहित मिथ्यादृष्टि हैं, उनके भाव-भक्ति तो नहीं है, लौकिक बाहिरी भक्ति होती है, उससे पुण्यका ही बन्ध है, कर्मका क्षय नहीं है । ऐसा कथन सुनकर श्रीयोगीन्द्रदेव से प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया । हे प्रभो, जो पुण्य मुख्यतासे मोक्षका कारण नहीं है, तो त्यागने योग्य ही है, ग्रहण योग्य नहीं है । जो ग्रहण योग्य नहीं है, तो भरत, सगर, राम, पांडवादिक महान् पुरुषोंने निरन्तर पंचपरमेष्ठी के गुणस्मरण क्यों किये ? और दान पूजादि शुभ क्रियाओंसे पूर्ण होकर क्यों पुण्यका उपार्जन किया ?
तब श्रीगुरुने उत्तर दिया- कि जैसे परदेश में स्थित कोई रामादिक पुरुष अपनी प्यारी सोता आदि स्त्रीके पाससे आये हुए किसी मनुष्यसे बातें करता हैउसका सम्मान करता है, और दान करता है, ये सब कारण अपनी प्रिया के हैं, कुछ उसके प्रसादके कारण नहीं हैं । उसी तरह वे भरत, सगर, राम, पांडवादि महान पुरुष वीतराग परमानन्दरूप मोक्षसे लक्ष्मी के सुख अमृत-रसके प्यासे हुए संसारकी