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रहित मिथ्यादृष्टिजीव पुण्य भी करते हैं, तो भी मोक्षके अधिकारी नहीं हैं, संसारीजीव ही हैं, यह तात्पर्य जानना ||५||
अथ निश्चयेन पुण्यं निराकरोति -
परमात्मप्रकाश
पुणे
विहवेण मत्रो मएण मइ-मोहो । मइ मोहेण य पावं ता पुराणं म्ह मा होउ || ६०||
पुण्येन भवति विभवो विभवेन मदो मदेन मतिमोहः ।
मतिमोहेन च पापं तस्मात् पुण्यं ठास्माकं मा भवतु || ६०||
आगे निश्चयसे मिथ्यादृष्टियोंके पुण्यका निषेध करते हैं - ( पुण्येन) पुण्य से घर में (विभवः) धन (भवति) होता है, और ( विभवेन) धनसे ( मदः) अभिमान ( मदेन) मानसे ( मतिमोह :) बुद्धिभ्रम होता है, ( मतिमोहेन ) बुद्धिके भ्रम होने से (अविवेक से ) (पापं ) पाप होता है, (तस्मात् ) इसलिये (पुण्यं) ऐसा पुण्य ( श्रस्माकं ) हमारे ( मा भवतु ) न होवे |
भावार्थ-भेदाभेदरत्नत्रयकी आराधनासे रहित, देखे सुने अनुभव किये भोगोंकी वांछारूप निदानबन्धके परिणामों सहित जो मिथ्यादृष्टि संसारी अज्ञानो जीव हैं, उसने पहले उपार्जन किये भोगोंकी वांछारूप पुण्य उसके फलसे प्राप्त हुई घर में सम्पदा होनेसे अभिमान (घमंड) होता है, अभिमानसे बुद्धि भ्रष्ट होती है, बुद्धि भ्रष्टकर पाप कमाता है, और पापसे भव-भवमें अनन्त दुःख पाता है । इसलिये मिथ्या
या पुण्य पापका ही कारण है । जो सम्यक्त्वादि गुण सहित भरत, सगर, राम पाण्डवादिक विवेकी जीव हैं, उनको पुण्यवन्ध अभिमान नहीं उत्पन्न करता, परम्पराय मोक्षका कारण है । जैसे अज्ञानियों के पुण्यका फल विभूति गर्वका कारण है, वैसे सम्यग्दृष्टियोंके नहीं है । वे सम्यग्दृष्टि पुण्यके पात्र हुए चक्रवर्ती आदिकी विभूति पाकर मद अहंकारादि विकल्पोंको छोड़कर मोक्षको गये अर्थात् सम्यग्दृष्टिजीव चक्रवर्ती चलभद्र - पदमें भो निरहकार रहे ।
ऐसा ही कथन आत्मानुशासन ग्रन्थ में श्रीगुणभद्राचार्यने किया है, कि पहले समय में ऐसे सत्पुरुष हो गये हैं, कि जिनके वचन में सत्य, बुद्धि में शास्त्र, मनमें दया, पराक्रमरूप भुजाओं में शूरवीरता, यात्रकों में पूर्ण लक्ष्मीका दान, और मोक्षमार्ग में गमन है, वे निरभिमानी हुए, जिनके किसी गुणका अहकार नहीं हुआ | उनके नाम शास्त्रों