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परमात्मप्रकाश मोक्षके कारण नहीं हैं, (तेन) इसीलिये पहली अवस्थामें पापके दूर करने के लिये ज्ञानी पुरुष इनको करता है, कराता है, और करते हुएको भला जानता है तो भो निर्विकल्प शुद्धोपयोग अवस्थामें (ज्ञानी) ज्ञानी जीव (एकमपि) इन तीनोंमें से एक भी (न करोति) न तो करता, (कारयति) न कराता है, और न (अनुमन्यते) करते हुएको भला जानता है ।
___ भावार्थ-केवल शुद्ध स्वरूप में जिसका चित्त लगा हुआ है. ऐसा निर्विकल्प परमात्मतत्त्वकी भावनाके बलसे देखे सुने और अनुभव किये भोगोंकी वांछारूप जो भूतकालके रागादि दोष उनका दूर करना वह निश्चयप्रतिक्रमण; वीतराग चिदानन्द शुद्धात्माकी अनुभूतिकी भावनाके बलसे होनेवाले भोगोंको वांछारूप रागादिकका त्याग वह निश्चयप्रत्याख्यान; और निज शुद्धात्माकी प्राप्तिके बलसे वर्तमान उदय में आये जो शुभ अशुभके कारण हर्ष विषादादि अशुद्ध परिणाम उनको निज शुद्धात्मद्रव्यसे जुदा करना वह निश्चयआलोचन; इस तरह निश्चयप्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और आलोचनामें ठहरकर जो कोई व्यवहारप्रतिक्रमण, व्यवहारप्रत्याख्यान, व्यवहार आलोचना इन तीनोंके अनुकूल वन्दना निंदा आदि शुभोपयोग है, उनको छोड़ता है वही ज्ञानी कहा जाता है, अन्य नहीं। सारांश यह है कि ज्ञानी जीव तो पहले तो अशुभको त्यागकर शुभमें प्रवृत्त होता है, वाद शुभको भी छोड़के शुद्ध में लग जाता है । पहले किये हुए अशुभ कर्मोकी निवृत्ति वह व्यवहारप्रतिक्रमण, अशुभपरिणाम होनेवाले हैं, उनका रोकना वह व्यवहारप्रत्याख्यान, और वर्तमानकालमें शुभकी प्रवृत्ति अशुभकी निवृत्ति वह व्यवहारपालोचन है । व्यवहार में तो अशुभका त्याग शुभका अंगीकार होता है, और निश्चयमें शुभ अशुभ दोनोंका ही त्याग होता है ।।६४।।
अथ-. बंदणु णिंदणु पडिकमणु णाणिहिं एहु ण जुत्तु । एक्कु जि मेल्लिवि णाणमउ सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥६५॥ वन्दनं निन्दनं प्रतिक्रमणं ज्ञानिनां इदं न युक्तम् ।
एकमेव मुक्त्वा ज्ञानमयं शुद्ध भावं पवित्रम् ॥६५।।
मागे इसी कथनको दृढ करते हैं-(वंदन निदनं प्रतिक्रमणं) वंदना, निदा, और प्रतिक्रमण (इदं) ये तीनों (ज्ञानिनां) पूर्ण ज्ञानियोंको (यक्तन) ठीक नहीं है।
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