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परमात्मप्रकाश (पुण्यमपि पापमपि ) पुण्य और पाप (अपि) दोनों को ही (मोहेन) मोहसे (करोति) करता है।
भावार्थ-निज शुद्धात्माकी अनुभूतिकी रुचिसे विपरीत जो मिथ्यादर्शन, निज शुद्धात्माके ज्ञानसे विपरीत मिथ्याज्ञान, और निज शुद्धात्मद्रव्य में निश्चल स्थिरतासे उलटा जो मिथ्याचारित्र इन तीनोंको बन्धका कारण और इन तीनोंसे रहित भेदाभेद रत्नत्रयस्वरूप मोक्षका कारण ऐसा जो नहीं जानता है, वही मोहके वशसे पुण्य पापका कर्ता होता है। पुण्यको उपादेय जानके करता है, पापको हेयं समझता है ।।५३।।
अथ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतमात्मानं योऽसौ मुक्तिकारणं, न जानाति स पुण्यपापद्वयं करोतीति दर्शयति
दंसण-णाण-चरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ । मोक्खहं कारणु भणिवि जिय सो पर ताई करेइ ॥५४॥ दर्शनज्ञानंचारित्रमयं यः नैवात्मानं मनुते ।
मोक्षस्य कारणं भर्णित्वा जीव स परं ते करोति ॥५४॥
आगे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूप परिणमता जो आत्मा वह ही मुक्तिका कारण है, जो ऐसा भेद नहीं जानता है, वही पुण्य पाप दोनोंका कर्ता है, ऐसा दिखलाते हैं- (यः) जो (दर्शनज्ञानचारित्रमयं) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी (आत्मानं) आत्माको (नैव मनुते) नहीं जानता, (स एव) वही (जीव) हे जीव; (ते) उन पुण्य पाप दोनोंको (मोक्षस्य कारणं) मोक्षके कारण (भरिणत्वा) जानकर (करोति) करता है ।
भावार्थ-निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग सहजानन्द एकरूप सुखरसका आस्वाद उसकी रुचिरूप सम्यग्दर्शन, उसी शुद्धात्मामें वीतराग नित्यानन्द स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान और वीतराग परमानन्द परम समरसीभावकर उसी में निश्चय स्थिरतारूप सम्यक्चारित्र-इन तीनों स्वरूप परिणत हुआ जो आत्मा उसको जा जीव मोक्षका कारण नहीं जानता, वह ही पुण्यको आदरने योग्य जानता है, और पापको त्यागने योग्य जानता है। तथा जो सम्यग्दृष्टिजीव रत्नत्रयस्वरूप परिणत हुए आत्माको ही मोक्षका मार्ग जानता है, उसके यद्यपि संसारकी स्थितिके छेदनका कारण और सम्यक्त्वादि गुणसे परम्पराय मुक्तिका कारण ऐसी तीर्थङ्करनामप्रकृति आदि शुभ