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परमात्मप्रकाश
[ १५७ अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त किया । इसलिये महाव्रतकी प्रसिद्धि नहीं हुई। इसपर कोई मूर्ख ऐसा विचार लेवे, कि जैसा उनको हुआ वैसे हमको भी होवेगा। ऐसा विचार ठीक नहीं है । यदि किसी एक अन्धेको किसी तरहसे निधिका लाभ हुआ, तो क्या सभीको ऐसा हो सकता है ? सबको नहीं होता। भरत सरीखे भरत ही हुए ।
इसलिये अन्य भव्यजीवोंको यही योग्य है, कि तप संयमका साधन करना ही श्रेष्ठ है। ऐसा ही "पुव्वं" इत्यादि गाथासे दूसरी जगह भी कहा है। अर्थ ऐसा है, कि जिसने पहले तो योगका अभ्यास नहीं किया, और मरणके समय जो कभी माराधक हो जावे, तो यह वात ऐसी जानना, कि जैसे किसी अन्धे पुरुषको निधिका लाभ हुआ हो। ऐसी बात सब जगह प्रमाण नहीं हो सकती। कभी कहीं पर होवे तो होवे ।।५२॥
___ एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गप्रतिपादकमहाधिकारमध्ये परमोपशमभावव्याख्यानोपलक्षणत्वेन चतुर्दशसूत्रैः स्थलं ससाप्तम् । अथानन्तरं निश्चयनयेन पुण्यपापे कै समाने इत्याद्य - पलक्षणत्वेन चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं व्याख्यानं क्रियते । तद्यथा-योऽसौ विभावस्वभावपरिणामो निश्चयनयेन वन्धमोक्षहेतुभूतो न जानाति स एव पुण्यपापद्वयं करोति न चान्य इति मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति
बंधहं मोक्खहं हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ । सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि दोइ ।।५३॥ बन्धस्य मोक्षस्य हेतुः निजः यः नैव जानाति कश्चित् ।
स परं मोहेन करोति जीव पुण्यमपि पापमपि द्वे अपि ॥५३।।
इस तरह मोक्ष, मोक्षका फल, और मोक्षके मार्गके कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें परम उपशांतभावके व्याख्यानकी मुख्यतासे अन्तरस्थल में चौदह दोहे पूर्ण हुए।
आगे निश्चयनयकर पुण्य पाप दोनों ही समान हैं, ऐसा चौदह दोहोंमें कहते हैं । जो कोई स्वभावपरिणामको मोक्षका कारण और विभावपरिणामको बन्धका कारण निश्चयसे ऐसा भेद नहीं जानता है, वही पुण्य पापका कर्ता होता है, अन्य नहीं, ऐसा मनमें धारणकर यह गाथा-सूत्र कहते हैं-(यः कश्चित् ) जो कोई जीव (बंधस्य मोक्षस्य हेतुः ) बन्ध और मोक्षका कारण (निजः ) अपना विभाव और स्वभाव परिणाम है, ऐसा भेद (नैव जानाति) नहीं जानता है, ( स एव ) वही