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परमात्मप्रकाश
कि जिसने आत्माका स्वभाव भिन्न जान लिया है । अपना स्वभाव प्रवृत्ति निवृत्तिसे रहित है। जहां व्रत अव्रतका विकल्प नहीं है। ये व्रत अव्रत पुण्य पापरूप बन्धके कारण हैं। ऐसा जिसने जान लिया, वह आत्मामें तल्लीन हुआ व्रत अव्रतमें रागद्वेष नहीं करता। ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने पूछा, हे भगवन्, जो व्रतपर राग नहीं करे, तो व्रत क्यों धारण करे ? ऐसे कथनमें व्रतका निषेध होता है। तब योगीन्द्राचार्य कहते हैं, कि व्रतका अर्थ यह है, कि सब शुभ अशुभ भावोंसे निवृत्ति परिणाम होना। ऐसा ही अन्य ग्रन्थोंमें भी "रागद्वषौ" इत्यादिसे कहा है। अर्थ यह है कि राग और द्वेष दोनों प्रवृत्तियां हैं, तथा इनका निषेध वह निवृत्ति है । ये दोनों अपने नहीं हैं, अन्य पदार्थके सम्बन्धसे हैं। इसलिये इन दोनोंको छोड़े। अथवा "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतं" ऐसा कहा गया है ।
इसका अर्थ यह है, कि प्राणियोंको पीड़ा देना, झूठ वचन बोलना, परधन हरना, कुशीलका सेवन और परिग्रह इनसे जो विरक्त होना, वही व्रत है । ये अहिंसादि व्रत प्रसिद्ध हैं, वे व्यवहारनयकर एकोदेशरूप व्रत हैं । यही दिखलाते हैंजीवघातमें निवृत्ति, जीवदयामें प्रवृत्ति, असत्य वचनमें निवृत्ति, सत्य वचनमें प्रवृत्ति, अदत्तादान (चोरी) से निवृत्ति, अचौर्य में प्रवृत्ति इत्यादि स्वरूपसे एकोदेशव्रत कहा जाता है, और राग-द्वेषरूप संकल्प विकल्पोंकी कल्लोलोंसे रहित तीन गुप्तिसे गुप्त समाधि में शुभाशुभके त्यागसे परिपूर्ण व्रत होता है । अर्थात् अशुभकी निवृत्ति और शुभकी प्रवृत्तिरूप एकोदेशव्रत और शुभ अशुभ दोनोंका ही त्याग होना वह पूर्ण व्रत है । इसलिये प्रथम अवस्था में व्रतका निषेध नहीं है एकोदेश व्रत है, और पूर्ण अवस्थामें सर्वदेश व्रत है।
यहां पर कोई यदि प्रश्न करे, कि व्रतसे क्या प्रयोजन ? आत्मभावनासे हो मोक्ष होता है। भरतजी महाराजने क्या व्रत धारण किया था ? वे तो दो घड़ी में हा केवलज्ञान पाकर मोक्ष गये । इसका समाधान ऐसा है, कि भरतेश्वरने पहले जिनदाक्षा धारण की, शिरके केशलुञ्चन किये, हिंसादि पापोंकी निवृत्तिरूप पांच महाव्रत आदरे । फिर एक अन्तर्मुहूर्त में समस्त विकल्प रहित मन, वचन, काय रोकनेरूप निज शुद्धात्मध्यान उसमें ठहरकर निर्विकल्प हए। वे शूद्धात्माका ध्यान, देखे, सुने मार भोगे हए भोगोंकी वांछारूप निदान वन्धादि विकल्पोंसे रहित ऐसे ध्यान में तल्लान होकर केवली हुए । जब राज छोड़ा, और मुनि हुए तभी केवली हुए, तब भरतेश्वरन