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परमात्मप्रकाश
[ १५६ (पुण्य) प्रकृतियोंको (कर्मोको) अवांछितवृत्तिसे ग्रहण करता है, तो भी उपादेय नहीं ___ मानता है । कर्मप्रकृतियोंको त्यागने योग्य ही समझता है ।।५४॥
. अथ योऽसौ निश्चयेन पुण्यपापद्वयं समानं न मन्यते स मोहन मोहितः सन् संसारं __ परिभ्रमतीति कथयति
जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोइ । सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडते लोके ॥५५॥ यः नैव मन्यते जीवः समाने पुण्यमपि पापमपि द्वः ।
स चिरं दुःखं सहमानः जीव मोहेन हिण्डते लोके ।।५।।
आगे जो निश्चयनयसे पुण्य पाप दोनोंको समान नहीं मानता, वह मोहसे मोहित हुआ संसारमें भटकता है, ऐसा कहते हैं-(यः) जो (जीवः) जीव (पुण्यमपि पापमपि द्वे) पुण्य और पाप दोनोंको (समाने) समान (नैव मन्यते) नहीं मानता, (सः) वह जीव (मोहेन) मोहसे मोहित हुआ (चिरं) बहुत कालतक (दुःखं सहमानः) दुःख सहता हुआ (लोके) संसारमें (हिंडते) भटकता है ।
भावार्थ-यद्यपि असदुद्भूत (असत्य) व्यवहारनयसे द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप ये दोनों एक दूसरेसे भिन्न हैं, और अशुद्धनिश्चयनयसे भावपुण्य और भावपाप ये दोनों भी आपस में भिन्न हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर पुण्य पाप रहित शुद्धात्मासे दोनों ही भिन्न हए बन्धरूप होनेसे दोनों समान ही हैं । जैसे सोने की वेड़ी और लोहेकी वेडी ये दोनों हो बंधका कारण हैं-इससे समान हैं । इस तरह नय विभागसे जो पूण्य पापको समान नहीं मानता, वह निर्मोही शुद्धात्मासे विपरीत जो मोहकर्म उससे मोहित हुआ संसारमें भ्रमण करता है । ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्ट बोला, यदि ऐसा ही है, तो कितने ही परमतवादी पुण्य पापको समान मानकर स्वच्छन्द हुए रहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ?
तब योगीन्द्रदेवने कहा-जब शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप तीन गुप्तिसे गुप्त वीतरागनिर्विकल्पसमाधिको पाकर ध्यानमें मग्न हुए पुण्य पापको समान जानते हैं, तब तो जानना योग्य है। परन्तु जो मूढ़ परमसमाधिको न पाकर भी गृहस्थ अवस्था में दान पूजा आदि शुभ क्रियाओं को छोड़ देते हैं, और मुनिपदमें छह आवश्यककर्मो को छोडते