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परमात्मप्रकाश
द्वौ अपि दोषौ भवतः तस्य यः समभावं करोति ।
बन्ध एव निहन्ति आत्मीयं अन्यत् जगदु ग्रहिलं करोति ॥४४॥ |
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आगे जो संयभी परम शान्तभावका ही कर्ता है, उसकी निंदाद्वारा स्तुति तीन गाथाओं में करते हैं - (यः) जो साधु (समभावं ) राग द्व ेषके त्यागरूप समभावको ( करोति) करता है, ' ( तस्य ) उस तपोधन के ( द्वौ अपि दोषी) दो दोष (भवतः ) होते हैं । (आत्मीयं बंधं एव निहंति) एक तो अपने बन्धको नष्ट करता है, (पुनः) दूसरे ( जगद् ग्रहिलं करोति) जगत् के प्राणियोंको बावला - पागल बना देता है ।
भावार्थ - यह निन्दाद्वारा स्तुति है । प्राकृत भाषा में बन्धु शव्द से ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध भी लिया जाता है, तथा भाईको भी कहते हैं । यहांपर वन्धु-हत्या निद्य है, इससे एक तो बन्धु-हत्याका दोष आया तथा दूसरा दोष यह है, कि जो कोई इनका उपदेश सुनता है, वह वस्त्र आभूषणका त्यागकर नग्न दिगम्बर हो जाता है । कपड़े उतारकर नंगा हो जाना उसे लोग गहला - पागल कहते हैं । ये दोनों लोकव्यवहारमें दोष हैं, इन शब्दों के ऐसे अर्थ ऊपर से निकाले हैं । परन्तु दूसरे अर्थ में कोई दोष नहीं है, स्तुति ही है । क्योंकि कर्मबन्ध नाश करने ही योग्य है, तथा जो समभावका धारक है, वह आप नग्न दिगम्बर हो जाता है, और अन्यको दिगम्बर कर देता है, सो मूढ़ लोग निन्दा करते हैं । यह दोष नहीं है, गुण ही है । मूढ़ लोगोंके जानने में ज्ञानीजन बावले हैं, और ज्ञानियोंके जाननेमें जगतके जन बावले हैं । क्योंकि ज्ञानी जगतसे विमुख हैं, तथा जगत् ज्ञानियोंसे विमुख है ॥४४॥
अथ
अणुवि दोसु हवेइ तसु जो सम भाउ करेइ |
संतु
वि मिल्लिव पण परहं खिली हवेइ ॥ ४५ ॥
अन्यः अपि दोषो भवति तस्य यः समभावं करोति ।
• शत्रुमपि मुक्त्वा आत्मीयं परस्य निलीनः भवति ॥ ४५ ॥
आगे समभावके धारक मुनिकी फिर भी निन्दा - स्तुति करते हैं - (यः) जो (समभावं ) समभावको ( करोति) करता है, (तस्य) उस तपोधनके ( अन्यः अपि दोषः ) दूसरा भी दोष (भवति) है । क्योंकि ( परस्य निलीनः ) परके आधीन (भवति) होता है, और (ग्रात्मीयं अपि) अपने आधीन भी (शत्रु) शत्रुको (मुंचति ) छोड़ देता है ।