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परमात्मप्रकाश
भावार्थ - यद्यपि यह आत्मा व्यवहारनयकर अनादिकाल से कर्मबन्धनकर वंधा है, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर प्रकृति, स्थित अनुभाग प्रदेश - इन चार तरह के बन्धनों से रहित है, यद्यपि अशुद्ध निश्चयनयसे अपने उपार्जन किये शुभ अशुभ कर्मो के फलका भोक्ता है, तो भी शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे निज शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न हुए वीतराग परमानन्द सुखरूप अमृतका ही भोगनेवाला है, यद्यपि व्यवहारनयसे कर्मों के क्षय होनेके बाद मोक्षका पात्र है, तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे सदा मुक्त ही है, यद्यपि व्यवहारनयकर इन्द्रियजनित मति आदि क्षयोपशमिकज्ञान तथा चक्षु आदि दर्शन सहित है तो भी निश्चयनय से सकल विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वभाववाला है, यद्यपि व्यवहारनयकर यह जीव नामकर्म से प्राप्त देहप्रमाण है, तो भी निश्चयनयसे लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी है, यद्यपि व्यवहारनयसे प्रदेशोंके संकोच विस्तार सहित है, तो भी सिद्ध-अवस्था में संकोच विस्तार से चरमशरीरप्रमाण प्रदेशवाला है, और यद्यपि पर्यायार्थिकनयसे उत्पाद व्यय श्रीव्यकर सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनयकर टंकोत्कीर्ण ज्ञानके अखंड स्वभावसे ध्रुव ही है ।
इस तरह पहिले निज शुद्धात्मद्रव्यको अच्छी तरह जानकर और आत्मस्वरूपसे विपरीत पुद्गलादि परद्रव्यों को भी अच्छी तरह निश्चय करके अर्थात् आप परका निश्चय करके वाद में समस्त मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंको छोड़कर वीतराग चिदानन्द स्वभाव शुद्धात्मतत्त्वमें जो लीन हुए हैं, वे ही धन्य हैं । ऐसा ही कथन परमात्मतत्त्व के लक्षणमें श्री पूज्यपादस्वामीने कहा है, "नाभाव" इत्यादि । अर्थात् यह आत्मा व्यवहारनयकर अनादिका बंधा हुआ है, और अपने किये हुए कर्मोंके फलका भोक्ता है, उन कर्मोंके क्षयसे मोक्षपदका भोक्ता है, ज्ञाता है, देखनेवाला है, अपनी देह के प्रमाण हैं, संसार-अवस्था में प्रदेशोंके संकोच विस्तारको धारण करता है, उत्पाद व्यय श्रव्य सहित है, और अपने गुण पर्याय सहित है । इसप्रकार आत्माके जाननेसे ही साध्यकी सिद्धि है, दूसरी तरह नहीं है ||४३||
अथ योऽसावेवोपशामभावं करोति तस्य निन्दाद्वारेण स्तुतिं त्रिकलेन कथयतिविरिण वि दोस हवंति तसु जो सम-भाउ करेइ । बंधु जिहिराइ पण अणु जगु गहिल करेइ ||४४ ||