________________
परमात्मप्रकाश_
[ १४७
छोड़ने से मोह कषाय रहित हुआ तू ( परं) नियमसे ( समबोधं ) राग द्वेष रहित ज्ञानको ( प्राप्नोषि ) पावेगा ।
भावार्थ - निर्मोह निज शुद्धात्मा के ध्यान से निर्मोह निज शुद्धात्मतत्त्वसे विपरीत मोहको हे जीव छोड़ । जिस मोहसे अथवा मोह करनेवाले पदार्थ से कषाय रहित परमात्मतत्त्वरूप ज्ञानानन्द स्वभाव के विनाशक क्रोधादि कषाय होते हैं, इन्हीं से संसार है, इसलिये मोह कषायके अभाव होने पर ही रागादि रहित निर्मल ज्ञानको तू पा संकेगा । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है । ' तं वत्थु " इत्यादि । अर्थात् वह वस्तु मन वचन कायसे छोड़नी चाहिये; कि जिससे कषायरूपी अग्नि न उत्पन्न हो, तथा उस 'वस्तुको अंगीकार करना चाहिये, जिससे कषायें शान्त हों । तात्पर्य यह है, कि विषयादिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टि पापियोंका सङ्ग सब तरहसे मोह कषायको उपजाते हैं, इससे ही मनमें कषायरूपी अग्नि दहकती रहती है । वह सब प्रकार से छोड़ना चाहिये, और सत्सङ्गति तथा शुभ सामग्री (कारण) कषायोंको उपशमाती हैं, कषायरूपी अग्निको बुझातो है, इसलिये उस संगति वगैरः को अङ्गीकार } करना चाहिये ||४२ ||
अथ हेयोपादेयतत्त्वं ज्ञात्वा परमोपशमे स्थित्वा येषां ज्ञानिनां स्वशुद्धात्मनि रतिस्त एव सुखिन इति कथयति -
तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम भावि ।
ते पर सुहिया इत्थु जगि जहं रह अप्प - सहावि ॥ ४३ ॥
तत्त्वातत्त्वं मत्वा मनसि ये स्थिताः समभावे ।
ते परं सुखिनः अत्र जगति येषां रतिः आत्मस्वभावे ||४३||
:
आगे हेयोपादेय तत्त्वको जानकर परम शांतभावमें स्थित होकर जिनके निःकषायभाव हुआ और निजशुद्धात्मामें जिनकी लीनता हुई. वे ही ज्ञानी परमसुखी हैं, ऐसा कथन करते हैं - ( ये ) जो कोई वीतराग स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञानी जीव (तत्त्वातत्त्वं ) आराधने योग्य निज पदार्थ और त्यागने योग्य रागादि सकल विभावों को ( मनसि ) मनमें ( मत्वा ) जानकर (समभावे स्थिताः) शान्तभाव में तिष्ठते हैं, और ( येषां रतिः) जिनको लगन (आत्मस्वभावे) निज शुद्धात्म स्वभावमें हुई है, (ते परं) . वे ही जीव (अत्र जगति) इस संसार में (सुखिनः) सुखी हैं ।