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परमात्मप्रकाश
भावार्थ- जो तपोधन धन धान्यादिका राग त्यागकर परमं शान्तभावको आदरता है, राजा रंकंको समान जानता है, उसके दोष कभी नहीं हो सकता । सदा स्तुति के योग्य है, तो भी शब्दकी योजनासे निन्दा द्वारा स्तुति की गई है वह इस तरहसे है कि शत्रु शब्द से कहे गये जो ज्ञानावरणादि कर्म-शत्रु उनको छोड़कर पर शब्दसे कहे गये परमात्माका आश्रय करता है । इसमें निन्दा क्या हुई, बल्कि स्तुति ही हुई । परन्तु लोकव्यवहारमें अपने अधीन शत्रुको छोड़कर किसी कारण से पर शब्दसे कहे गये शत्रुके आधीन आप होता है, इसलिये लौकिक- निन्दा हुई; यह शब्द के छल से निन्दा-स्तुति की गई । वह शब्द के श्लेष होनेसे रूपअलंकार कहा गया है ॥४५॥
अथ -
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वि दोसु हवेइ तसु जो समभाउ करेइ । वियलु हवेविणु इक्कलङ उपरि जगहं चडेइ ॥ ४६ ॥
अन्यः अपि दोषः भवति तस्य यः समभावं करोति ।
विकलः भूत्वा एकाकी उपरि जगतः आरोहति ॥४६॥
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आगे समदृष्टिकी फिर भी निन्दा-स्तुति करते हैं - (यः) जो तपस्वी महा मुनि (समभाव) संमभावको (करोति) करता है, (तस्य) उसके (अन्यः अपि) दूसरा भी ( दोषः ) दोष (भवति) होता है, जो कि ( विकलः भूत्वा ) शरीर रहित होके अथवा बुद्धि धन वगैरः से भ्रष्ट होकर ( एकाकी) अकेला ( जगतः उपरि ) लोकके शिखरपर अथवा सबके उपर (आरोहति ) चढ़ता है ।
है,
भावार्थ—जो तपस्वी रागादि रहित परम भावना करता है, उसकी शब्द के छल से तो निन्दा से भ्रष्ट होकर लोक अर्थात् लोकोंके ऊपर चढ़ता है । असल में ऐसा अर्थ है, कि विकल अर्थात् शरीरसे रहित (मोक्ष) पर विराजमान हो जाता है । यह स्तुति ही है ।
उपशमभावरूप निजं शुद्धात्माकी कि विकल अर्थात् बुद्धि वगैर यह लोक - निन्दा हुई । लेकिन होकर तीन लोकके शिखर क्योंकि जो अनन्त सिद्ध
हुए, तथा होंगे, वे शरीर रहित निराकार होके जगत्के शिखर पर विराजे हैं ||४६ ||
यथ स्थल संख्यावाह्यं प्रक्षेपकं कथयति
जागसि सयलहं देहियहं जोग्गिउ तहिं जग्गेइ |
जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेड़ ॥१६७९ ॥