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आगें जिस समय जितने कालतक रागादि रहित परिणामोंकर निज शुद्धात्मस्वरूपमें तन्मय हुआ ठहरता है, तबतक संवर और निर्जगको करता है, ऐसा कहते हैं - ( मुनिः ) मुनिराज ( यावंतं कालं ) जबतक ( आत्मस्वरूपे निलीनः ) आत्मस्वरूप में लीन हुआ (तिष्ठति) रहता है, अर्थात् वीतराग नित्यानन्द परम समरसीभावकर परि णमता हुआ अपने स्वभाव में तल्लीन होता है, उस समय हे प्रभाकरभट्ट ; ( त्वं) तू (सकलविकल्पविहीनं) समस्त विकल्प समूहों से रहित अर्थात् ख्याति ( अपनी बड़ाई) पूजा ( अपनी प्रतिष्ठा ) लाभको आदि देकर विकल्पोंसे रहित उस मुनिको ( संवर निर्जरा) संवर निर्जरा स्वरूप (जानीहि ) जान । यहांपर भावार्थरूप विशेष व्याख्यान जो कि पहले दो सूत्रोंमें कहा था, वही जानो । इसप्रकार संवर निर्जराका व्याख्यान संक्षेपरूपसे कहा गया है ||३८||
एवं मोक्षमोक्षमार्ग मोक्षफलादिप्रतिपाद कद्वितीयमहा धिकारोक्त वाष्टकेनाभेद रत्नत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन स्थलं समाप्तम् । अत ऊर्ध्वं चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं परमोपशमभावमुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति ।
तथाहि
परमात्मप्रकाश
कम्मु पुरक्किउ सो खबइ अहिरणव पेसु ण देइ । संगु मुवि जो सयलु उवसम भाउ करेइ ॥ ३६ ॥
कर्म पुराकृतं स क्षपयति अभिनवं प्रवेशं न ददाति ।
संगं मुक्त्वा यः सकलं उपशमभावं करोति ।।३।।
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इस तरह मोक्ष, मोक्ष मार्ग और मोक्ष फलका निरूपण करनेवाले दूसरे महाधिकार में आठ दोहा-सूत्रोंसे अभेदरत्नत्रय के व्याख्यानकी मुख्यता से अंतरस्थल पूरा हुआ आगे चौदह दोहोंमें परम उपशमभावकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं(सः) वही वीतराग स्वसवेदन ज्ञानी (पुराकृतं कर्म ) पूर्व उपार्जित कर्मोंको (क्षपर्यात) क्षय करता है, और (अभिनवं ) नये कर्मोंको ( प्रवेशं ) प्रवेश ( न ददाति) नहीं होने देता, (यः) जो कि (सकलं) सब (संग) बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहको (मुक्त्वा) छोड़कर ( उपशमभावं ) परम शान्तभावको (करोति) करता है, अर्थात् जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दु:ख, शत्रु, मित्र, तृण, कांचन इत्यादि वस्तुओं में एकसा परिणाम रखता है। भावार्थ - जो मुनिराज सकल परिग्रहका छोड़कर सव शास्त्रोंका रहस्य जानके वीतराग परमानन्द सुखरसका आस्वादी हुआ समभाव करता है, वही साधु