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________________ परमात्मप्रकाश [ १४३ इस धर्मध्यानको आचरो। यह धर्मध्यान परम्पराय मुक्तिका मार्ग है, संसारकी स्थितिका छेदनेवाला है। जो कोई नास्तिक इस समय धर्मध्यानका अभाव मानते हैं, वे झूठ बोलनेवाले हैं, इस समय धर्मध्यान है, शुक्लध्यान नहीं है ।।३६॥ अथ सुखदुःखं सहमानः सन् येन कारणेन समभावं करोति मुनिस्तेन कारणेन पुण्यपापद्वयसवरहेतुर्भवतीति दर्शयति विरिण वि जेण सहंतु मुणि मणि सम-भाउ करेइ । पुण्णहं पावहं तेण जिय संवर-हेउ हवेइ ॥३७॥ द्वे अपि येन सहमानः मुनिः मनसि समभावं करोति । पुण्यस्य पापस्य तेन जीव संवरहेतुः भवति ॥३७॥ .. आगे जो मुनिराज सुख दुःखको सहते हुए समभाव रखते हैं, अर्थात् सुखमें तो हर्ष नहीं करते, और दुःखमें खेद नहीं करते, जिनके सुख दुःख दोनों ही समान हैं, वे ही साधु पुण्यकर्म पापकर्मके संवर (रोकने) के कारण हैं, आनेवाले कर्मोको रोकते हैं, ऐसा दिखलाते हैं-(येन) जिस कारण (कै अपि सहमानः) सुख दुःख दोनोंको ही सहता हुआ. (मुनिः) स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञानी (मनसि) निश्चित मनमें (समभावं) समभावोंको (करोति) धारण करता है, अर्थात् राग द्वष मोह रहित स्वाभाविक शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप परिणमन करता है, विभावरूप नहीं परिणमता, (तेन) इसी कारण (जीव) हे जीव, वह मुनि (पुण्यस्य पापस्य संवरहेतुः) सहजमें ही पुण्य और पाप इन दोनोंके संवरका कारण (भवति) होता है। भावार्थ-कर्मके उदयसे सुख दुःख उत्पन्न होनेपर भी जो मुनीश्वर रागादि रहित मनमें शुद्ध ज्ञानदर्शनस्वरूप अपने निज शुद्ध स्वरूपको नहीं छोड़ता है, वही पुरुष अभेदनयकर द्रव्य भावरूप पुण्य पापके संवरका कारण है ॥३७॥ ____ अथ यावन्तं कालं रागादिरहितपरिणामेन स्वशुद्धात्मस्वरूपे तन्मयो भूत्वा तिष्ठति तावन्तं कालं संवरनिर्जरां करोतीति प्रतिपादयति.. अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु । संवर-णिज्जर जाणि तुहुँ सयल-वियप विहीणु ॥३८॥ . .तिष्ठति यावन्तं कालं मुनिः आत्मस्वरूपे निलीनः ।। संवर निर्जरां जानीहि त्वं सकलविकल्पविहीनम् ।।३।।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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